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________________ -६.१५ ] षष्ठो विभागः [ १०३ पृथिवीपरिणामश्च तेजोधातुश्च भास्करः । उदितं चातपं नाम नामकर्मात्र भास्करे ॥ ८ एकषष्ठिकृतान् भागान् योजनस्य पृथू रविः । चत्वारिंशतमष्टौ च परिधिस्त्रिगुणोऽधिकः ॥ ९ * ६१ ।१४। द्वादशैव सहस्राणि तस्योष्णाश्च गभस्तयः । तावन्त एव चन्द्रस्य शीतलाः किरणा मताः ॥ १० अरिष्टश्चार्कवद्वेद्यो व्यासेन न्यूनयोजनम् । राहुः समानोऽरिष्टेन शीतलांशुश्च भाषितः ॥ ११ एकषष्ट्यास्तु भागेषु पञ्चहीनास्तु पार्थवे । अब्दा तु शीतलांशौ च सोमेनेन्यूनचक्रवत् ॥ १२ । १६ ।। शुक्रश्च पृथिवीधातुरुतं बहल : २ पृथुः । द्वे सहस्रे पुनः सार्धे रश्मयो रविवद्युतिः ३ ॥ १३ बुधस्य खलु भौमस्य शनैश्चारिण एव च । क्रोशाधं विस्तृतं पीठं गुरोरूनं तु गोरुतम् ॥ १४ चतुर्भागं द्विभागं च चतुर्भागोनगोरुतम् । गोरुतं चापरास्तारा विस्तृता मन्दरश्मयः ॥ १५ १।३।३। पाठान्तरं कथ्यते -- पृथिवीके परिणाम स्वरूप सूर्यका बिम्ब चमकीली धातुसे निर्मित होता है । उस सूर्यके- उसके बिम्बमें स्थित पृथिवीकायिक जीवोंके - आतप नामकर्मका उदय हुआ करता है [ उससे मूलमें अनुष्ण रहकर भी उसकी प्रभा उष्ण होती है ] ॥ ८ ॥ सूर्यबिम्बका विस्तार एक योजनके इकसठ भागोंमें चालीस और आठ अर्थात् अड़तालीस भाग (ई) प्रमाण है । उसकी परिधि विस्तारसे कुछ अधिक तिगुनी ( ) है ।। ९ ।। सूर्यकी उष्ण किरणें बारह हजार ( १२०००) प्रमाण हैं । उतनी ( १२०००) ही शीतल किरणें चन्द्रमाकी मानी गई हैं ॥ १० ॥ केतुका भी विमान सूर्यके ही समान जानना चाहिये, उसका विस्तार एक योजनसे कुछ कम है । राहुका विमान केतुके समान होता हुआ शीतल किरणोंसे संयुक्त कहा गया है ।। ११ ।। चन्द्रबिम्बका भी विस्तार एक योजनके इकसठ भागों में पांच कम अर्थात् छप्पन ( भाग प्रमाण है । ( ? ) ॥ १२ ॥ पृथिवीधातुमय शुक्र विमानका विस्तार एक कोस मात्र तथा किरणें अढ़ाई हजार ( २५०० ) हैं, कान्ति उसकी सूर्य के समान है ॥ १३ ॥ बुध, मंगल और शनैश्चरकी पीठका विस्तार आधा कोश तथा गुरुकी पीठका विस्तार कुछ कम एक कोस प्रमाण है ।। १४ । मन्द किरणोंसे संयुक्त अन्य ताराओंका विस्तार एक कोसके चतुर्थ भाग ( 17 ), एक कोसके द्वितीय भाग (३), चतुर्थ भाग से कम एक कोस ( 7 ), तथा पूर्ण कोस प्रमाण है । [ अभिप्राय यह कि ताराओं का जघन्य विस्तार एक कोसके चतुर्थ भाग प्रमाण तथा उत्कृष्ट पूरे कोस प्रमाण है, उनका मध्यम विस्तार एक कोसके चतुर्थ भागसे कुछ अधिकको आदि लेकर कुछ कम एक कोस प्रमाण अनेक भेद रूप है ] ।। १५ ।। पाठान्तर कहा जाता है १ आप पृथ्वी । २ आप बहुत: । ३ आ प द्युति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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