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[ षष्ठो विभागः ]
ज्ञानसुज्योतिषा लोको येनाशेष: प्रकाशितः । तं सर्वज्ञं प्रणम्याग्रे ज्योतिर्लोकः प्रवक्ष्यते ॥ १ चन्द्राः सूर्या ग्रहा भानि तारकाश्चेति पञ्चधा । जिनैर्ज्योतिषिकाः प्रोक्ताः खे चरन्तः स्थिता अपि ॥ गोलार्धगृहास्तेषां ज्योतिषां मणितोरणाः । भ्राजन्ते देवदेवीभिजिनबिम्बैश्च नित्यशः ॥ ३ ऊर्ध्वमष्टशते भूम्या दशोनेऽन्त्यास्तु तारकाः । ताभ्यो दशसु सूर्याः स्युस्ततोऽशीत्यां निशाकराः ॥
७९० ।८०० । ८८० ।
तेभ्यश्चतुर्षु ऋऋक्षाणि तेभ्यः सौम्याश्च तावति । शुक्रगुर्वारसौराश्च त्रिषु त्रिषु यथाक्रमम् ॥ ५ ४ । ४ । ३ । ३ । ३।३। ज्योतिः पटलबाहल्यं दशाग्रं शतयोजनम् । भ्रमन्ति मानुषावासे स्थित्वा भान्ति' ततः परम् ॥ ६
। ११० ।
गव्यूतिसप्तभागेषु जघन्यं तारकान्तरम् । पञ्चाशन्मध्यमं ज्ञेयं सहलं बृहदन्तरम् ॥ ७
।।५०।१०००।
जिसने ज्ञानरूपी उत्तम ज्योतिके द्वारा समस्त लोकको प्रकाशित किया है उस सर्वज्ञ देवको प्रणाम करके आगे ज्योतिर्लोकका वर्णन किया जाता है ॥ १ ॥ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा इस प्रकारसे जिनेन्द्र देवके द्वारा ज्योतिष देव पांच प्रकारके कहे गये हैं । इनमें कुछ आकाशमें परिभ्रमण किया करते हैं और कुछ वहां स्थित भी रहते हैं ॥ २ ॥ उन ज्योतिषी देवोंके अर्ध गोलकके समान गृह मणिमय तोरणोंसे अलंकृत होते हुए निरन्तर देव-देवियों और जिनबिम्बोंसे सुशोभित रहते हैं ।। ३ ।। इस पृथिवी से दस कम आठ सौ ( ७९० ) योजन ऊपर जाकर अन्तिम तारा स्थित हैं, उनसे दस ( ७९० + १० = ८०० ) योजन ऊपर जाकर सूर्य, उनसे अस्सी (८०० + ८० – ८८० ) योजन ऊपर जाकर चन्द्र, उनसे चार (४) योजन ऊपर जाकर ग्रह, उनसे उतने ( ४ ) ही योजन ऊपर जाकर बुध, फिर क्रमसे तीन-तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र, गुरु, मंगल और शनि स्थित हैं ||४ - ५ || ज्योतिषपटलका बाहल्य एक सौ दस (१० + ८०+४+४+३+३+३+३= ११०) योजन मात्र है, अर्थात् उपर्युक्त सब ज्योतिषी देव क्रमशः पृथिवीसे ऊपर सात सौ नब्बैसे लेकर नौ सौ योजन तक एक सौ दस योजनके भीतर अवस्थित हैं। जो ज्योतिषी देव मनुष्यलोक ( अढ़ाई द्वीप ) में वर्तमान हैं वे परिभ्रमण किया करते हैं, और इससे आगेके सब ज्योतिषी देव अवस्थित ( स्थिर) रहकर सुशोभित होते हैं ।। ६॥
एक तारासे दूसरे तारे तक ताराओंका जघन्य अन्तर एक कोसके सातवें भाग ( 23 ) मात्र, मध्यम अन्तर पचास ५० [ योजन ] और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार १००० [योजन ] मात्र जानना चाहिये ॥ ७ ॥
१ प भ्रान्ति ।
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