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________________ १०० लोकविभाग: [५.१६१शीतक्षारविषश्च्योताः' परुषाग्निक्षरा' अपि । धूलोधूमक्षराश्चैव प्रवर्षन्ति क्रमाद्धनाः ॥ १६१ एकैको दिवसान् सप्त आप्लावयति तोयदः । तैः शेषाश्च प्रजा नाशमुपयान्ति स्वपापतः॥१६२ विषदग्धाग्निनिर्दग्धा भूः सस्थावरजङ्गमाः । अधो योजनमध्वानं चूर्णीभवति कालतः ॥ १६३ काले दीर्घायुषश्चात्र त्रिंशदर्धसमायुषः । मत्स्यमण्डूकमूलाचैराहारर्वतयन्ति च ॥ १६४ समा उक्ता षडप्येता भरतरावतेषु तु । क्रमेण परिवर्तन्ते उत्सपिण्या विपर्ययात् ॥ १६५ षष्ठाद्येनावसपिण्यामुत्सपिण्याद्यषष्टका । उभौ समाविति ज्ञेयावन्यासां चैवमादिशेत् ॥ १६६ पुष्कराख्या पुनर्मेघाः प्रादुर्भूय समन्ततः । वर्षन्त्योष्ण्यप्रशान्त्यर्थ सप्ताहं सार्वलौकिकाः ॥ १६७ दुग्धमेघाश्च वर्षन्ति भूम्याः शुभ्रकरास्ततः । स्नेहदा घृतमेघाश्च स्निग्धां कुर्वन्ति मेदिनीम् ॥ अमृतोदकमेघाश्च औषधी जनयन्ति ते । रसमेघाः पुनस्तासु नानारसकराः स्मृताः ॥१६९ ।। नानारसजलैर्भूमिभ्रष्टास्वादा प्रवर्तते । वल्लीगुल्मलता वृक्षा नानाकारा भवन्ति च ॥ १७० । उस समय क्रमसे शीत (बर्फ), क्षार, विष, परुष (पाषाणादि), अग्नि, धूलि और धूमकी वर्षा करनेवाले मेघ वरसते हैं ॥ १६१ ॥ इनमेंसे एक एक मेघ क्रमसे सात सात दिन पर्यन्त उपर्युक्त हिम आदिकी वर्षा करता है। जो जीव देवों व विद्याधरोंके द्वारा सुरक्षित स्थानमें पहुंचाये जाते हैं उनको छोड़कर शेष जीव उक्त मेघोंके द्वारा अपने पापके उदयसे नाशको प्राप्त होते हैं ।। १६२ ॥ कालके प्रभावसे विष एवं अग्निकी वर्षासे निःशेष जली हुई भूमि स्थावर व जंगम (स) जीवोंके साथ नीचे एक योजन पर्यन्त चूर चूर हो जाती है ॥ १६३ ।। उस काल में यहां तीसके आधे अर्थात् पन्द्रह वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुवाले प्राणी मत्स्य, मेंढक और मूल आदिके आहारसे जीवित रहते हैं ।। १६४ ॥ ऊपर जो ये छहों काल बतलाये गये हैं वे यहां भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी कालमें इसी क्रमसे तथा उत्सर्पिणी कालमें विपरीत (अतिदुःषमा व दुःषमा आदि) क्रमसे प्रवर्तमान होते हैं ॥ १६५ । अवसर्पिणी कालमें जो छठा (अतिदुःषमा) काल अन्तमें कहा गया है वही छठा काल उत्सर्पिणीका प्रथम काल होता है। इस प्रकार इन दोनों कालोंकी गति समझना चाहिये । शेष कालोंका भी निर्देश इसी प्रकारसे करना चाहिये ।। १६६ ।। उत्सर्पिणी कालके प्रारम्भमें समस्त लोकका भला करनेवाले पुष्कर नामक मेघ प्रगट होकर पूर्वोत्पन्न उष्णताको शान्त करनेके लिये सात दिन पर्यन्त वरसते हैं ॥१६७ । तत्पश्चात् भूमिको सफेद करनेवाले क्षीरमेघ वरसते हैं, अनन्तर चिक्कणताको देनेवाले घृतमेघ भी पृथिवीको स्निग्ध कर देते हैं ।। १६८ ।। फिर वे प्रसिद्ध अमृतमेघ भी अमृतके समान जलकी वर्षा करके औषधियोंको उत्पन्न करते हैं, तत्पश्चात् रसमेघ उन औषधियोंमें अनेक प्रकारके रसको उत्पन्न करते हुए स्मरण किये गये हैं ।। १६९ ॥ उस समय नाना रसोंसे संयुक्त जलके द्वारा भूमि मृष्ट (मधुर) स्वादवाली हो जाती है और तब अनेक आकारवाली बेलें, झाडियाँ, १ आ विषश्च्योताः ब विषश्चोताः। २ ब पुरुषाग्नि । ३ प प्रजाः । ४ ब सर्पिण्या उत्स। ५ आ वर्षन्त्योष्णप्र',पवर्षन्त्यौष्ठाप्र । ६ प भूम्या । ७ आ प प्रवर्षते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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