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-५.१६०] पञ्चमो विभागः
[९९ हस्तद्वयसमुच्छाया धूमश्यामा विरूपकाः। षष्ठादौ पञ्चमान्ते च विंशत्यब्वायुषोऽधिकात् ॥१५२ तत्र सूर्योदये धर्मो मध्याह्न राजशासनम् । अस्तं गच्छति सूर्येऽग्निर्नश्यत्येकदिने क्रमात् ॥ १५३ धर्मे लोकगुरौ नष्टे पितरीव नूपेऽपि च । आधारे च महत्यग्नो अनाथं जायते जगत् ॥ १५४ कालदोषविनष्टानामज्ञानां नीचकर्मणाम् । 'त्यक्तानामपि धर्मेण मृगाचारः प्रवर्तते ॥ १५५ ततः कालानुभावेन प्रजानामपि पीडया। घोरः संवर्तको नाम्ना प्रादुर्भवति मारुतः॥ १५६ चूर्णयित्वाद्रिवृक्षांश्च भित्त्वा भूमितलानि सः। दिशो भ्राम्यति भूतानां पीडां घोरामुदीरयन् ॥१५७ वृक्षभङ्गशिलाभेदैर्धमद्भिर्वातपूणितः । नियन्ते परितो जीवा मूर्च्छन्ति विलपन्ति च ॥ १५८ विजयार्धान्तमासन्ना भीता उत्पातदर्शनात् । भग्नशेषा नरास्तत्र गङ्गासिन्धुमुखान्तिका: ॥ १५९ प्रविशन्ति बिलं कृच्छान्नद्योस्तीरं समाश्रिताः। द्विसप्ततिनिगोदास्तु तत्र जीवन्ति बोजवत् ॥ १६०
उक्तं च द्वयं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [४,१५४७-४८]गंगासिंधुणदोणं वेयडवणंतरम्मि पविसंति । पुह पुह संखेज्जाइं बावत्तरि सयलजुगलाई ॥ १४ देवा विज्जाहरया कारुण्णपरा जराण तिरियाणं । संखेज्जजीवरासि खिवंति तेसु पएसेसुं ॥१५
- पंचम कालके अंतमें तथा छठे कालके आदिमें आयु बीस वर्षसे अधिक तथा मनुष्योंके शरीर दो हाथ ऊंचे एवं धूमके समान श्यामवर्ण होकर कुरूप होते हैं ॥ १५२ ॥ पंचम कालके अन्तमें एक ही दिनमें क्रमसे सूर्योदयके समय (प्रातःकाल) में धर्म, मध्यान्ह कालमें राजशासन तथा सूर्यके अस्त होते समय अग्निका नाश होता है ।।१५३॥ लोकके गुरुस्वरूप धर्मके, पिताके समान प्रजाकी रक्षा करनेवाले राजाके, तथा महान् आधारभूत अग्निके विनष्ट हो जानेपर जगत् अनाथ हो जाता है ॥१५४॥ तब कालदोषसे विनाशको प्राप्त होकर नीच कर्म करनेवाले अज्ञानियोंमें धर्मको छोड़कर पशुवत् आचरण प्रवृत्त होता है ॥१५५॥ तत्पश्चात् कालके प्रभावसे और प्रजाजनोंकी पीडासे भयानक संवर्तक नामक वायुका प्रादुर्भाव होता है । ॥१५६॥ वह पर्वतों और वृक्षोंको चूर्णित करके तथा पृथिवीतलोंको भेदकर प्राणियोंके लिये भयंकर पीड़ा उत्पन्न करता हुआ दिशाओंमें घूमता है ॥१५७॥ वायुसे प्रेरित होकर घूमते हुए वृक्षखण्डों और शिलाभेदोंके द्वारा सब ओर प्राणी विलाप करते हुए मूर्छाको प्राप्त होते और मरते हैं ॥१५८॥ इस उपद्रवको देखकर भयको प्राप्त हए प्राणी विजयार्धके निकट पहंचते हैं। उनमें मरनेसे बचे हुए गंगा-सिंधु नदियोंके पासमें स्थित वे प्राणी बड़े कष्टसे उन नदियों के किनारे जाकर बिलोंमें प्रविष्ट होते हैं। उनमें बहत्तर युगल बीजके समान जीवित रहते हैं ॥१५९-१६०॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें कहा भी है -
__ इस समय पृथक् पृथक् संख्यात जीव तथा युगलके रूपमें सम्पूर्ण बहत्तर जीवयुगल गंगा-सिन्धु नदियों तथा विजयाध पर्वतोंके वनोंके मध्यमें प्रविष्ट होते हैं ॥ १४ ॥ कुछ दयालु देव एवं विद्याधर उक्त मनुष्यों और तिर्यंचोंमेंसे संख्यात जीवराशिको पूर्वोक्त प्रदेशोंमें स्थापित करते हैं ॥ १५ ॥
१५ त्यक्त्वा । २५ परतो। ३ बाप उक्तं च त्रि। ४ ा प भावत्तरि।
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