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________________ ९६] लोकविभागः [५.१२१कुलानां धारणादेते मताः कुलधरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ता युगादौ प्रभविष्णवः ॥ १२१ वृषभस्तीर्थकृच्चैव कुलभृच्चैव संमतः' । भरतश्चक्रभृच्चैव कुलधृच्चवरे वर्णित: ॥ १२२ अत्राद्यैः पञ्चभिर्नणां कुल कृद्धिः कृतागसाम् । हाकारलक्षणो दण्डः समवस्थापिस्तदा ॥ १२३ हा-माकारौ च दण्डोऽन्यः पञ्चभिः संप्रवर्तितः । पञ्चभिस्तु ततः शेषैः हा-मा-धिक्कारलक्षणः॥ शरीरदण्डनं चैव वधबधादिलक्षणम् । तृणां प्रवलदोषाणां भरतेन नियोजितम् ॥ १२५ यदायुरुक्तमेतेषामममादिप्रसंख्यया। क्रियते तद्विनिश्चित्य परिभाषोपवर्णनम् ॥ १२६ पूर्वाङ्ग वर्षलक्षाणामशीतिश्चतुरुत्तरा । तद्वगितं भवेत्पूर्वं तत्कोटी पूर्वकोटयसौ ॥ १२७ पूर्व चतुरशीतिघ्नं पर्वाइं परिभाष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ॥१२८ गुणाकारविधिः सोऽयं योजनीयो यथाक्रमम् । उत्तरेष्वपि संख्यानविकल्पेषु निराकुलम् ॥ १२९ ये कुलोंके धारण करनेसे 'कुलधर' माने गए हैं, तथा युगके आदिमें उत्पन्न होनेके कारण 'युगादिपुरुष' भी कहे गए हैं ॥१२१॥ वृषभदेव तीर्थंकर भी माने गये हैं और कुलकर भी माने गये हैं। भरत राजा चक्रवर्ती भी कहे गए हैं और कुलधर भी ॥१२२॥ _ इनमेंसे आदिके पांच कुलकर पुरुषोंने अपराध करनेवाले पुरुषोंके लिये उस समय 'हा' इस प्रकारका दण्ड स्थापित किया था, जिसका अभिप्राय कृत अपराधके प्रति केवल खेद मात्र प्रगट करना या उसका अनौचित्य बतलाना था ।।१२३॥ मागेके अन्य पांच कुलकरोंने अपराध करनेवालों के लिये 'हा-मा' इस प्रकारके दण्डका उपयोग किया था। इसका अभिप्राय किये गये अपराध कार्यका अनौचित्य प्रगट करके आगेके लिये उसका निषेध करना था । शेष पांच कुलकर पुरुषोंने उनके लिए 'हा-मा-धिक् ' इस प्रकारका दण्ड स्थापित किया था। इसका अभिप्राय कृत कार्यका अनौचित्य प्रगट करके झिडकी देते हुए आगेके लिये उसका निषेध करना था ।। १२४ ।। भरत चक्रवर्तीने महान् अपराध करनेवाले मनुष्योंके लिये ताडना करने एवं बन्धनमें डालने आदिरूप शारीरिक दण्ड भी नियुक्त किया था ।।१२५॥ इन कुलकरोंकी पहिले जो 'अमम' आदिके प्रमाणसे आयु बतला यी गई है उसका निश्चय करनेके लिये उन परिभाषाओंका वर्णन किया जाता है-चौरासी लाख (८४०००००) वर्षोंका एक पूर्वांग होता है। उसको वगित करनेपर (८४०००००२ =७०५६००००००००००) एक पूर्व, तथा उसे एक करोडसे गुणित करनेपर एक पूर्वकोटि कहा जाता है ।।१२६-१२७॥ चौरासीसे गुणित पूर्वको पर्वांग कहा जाता है और उस पर्वांगको पूर्वांगसे (८४ लाख) गुणित करनेपर जो संख्या प्राप्त हो वह पर्व मानी जाती है ॥१२८।। आगेके संख्याभेदोंमें भी निराकुल होकर क्रमसे इसी गुणाकारविधिकी योजना करना चाहिये [जैसे- पर्वको चौरासी (८४) से गुणित करनेपर वह नयुतांग तथा इस नयुतांगको चौरासी लाख (८४०००००) से गुणित करनेपर वह नयुत कहा जाता है, इत्यादि । विशेषके लिये देखिये ति. प. गा. ४, २९५-३०८] ।।१२९।। १ आप कृच्चव संमतः । २५ कुलभन्चव। ३ आप स्थापितः सदा । ४ आ पदण्डान्यैः । बनणां । पपगं । 1 आप पागं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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