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पञ्चमो विभागः स्वभावमधुराश्चैते दीर्घाः पुण्ड्रेक्षुदण्डकाः' । रसीकृत्य प्रपातव्या दन्तर्यन्त्रैश्च पीडिताः ॥ ११२ गजकुम्भस्थले तेन मृदा निर्वतितानि च । पात्राणि विविधान्येषां स्थाल्यादीनि दयालुना ॥११३ इत्याधुपायकथन: प्रीता: सत्कृत्य तं मनुम् । भेजुस्तद्दशिता वृत्ति प्रजा: कालोचितां तदा ॥ ११४ प्रजानां हितकृद् भूत्वा भोगभूमिस्थितिच्युतौ। नाभिराजस्तदोद्भूतो भेजे कल्पतरुस्थितिम्॥ ११५ पूर्व व्यावणिता ये ये प्रतिश्रुत्यादयः क्रमात् । पुराभवे बभुदुस्ते विदेहेषु महान्वयाः ॥ ११६ कुशलैः पात्रदानाचैः अनुष्ठानैर्यथोचितैः । सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व बध्वायुर्भोगभूभुवाम् ॥ ११७ पश्चात् क्षायिकसम्यक्त्वमुपादाय जिनान्तिके । अत्रोदपत्सत स्वायुरन्ते ते श्रुतपूर्विणः ॥ ११८ इमं नियोगमाध्याय प्रजानामित्युपादिशन् । केचिज्जातिस्मरास्तेषु केचिच्चावधिलोचनाः ॥११९ प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः । आर्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः३ कुलकरा इमे ॥ १२०
इनके अन्न आदिका भोजन करना चाहिए ॥१११॥ स्वभावसे मीठे ये जो दण्डके समान लंबे पौंडा और ईखके पेड़ हैं उनको दांतोंसे अथवा कोल्हू आदि यंत्रोंसे पीडित करके रस निकालना चाहिए और उसका पान करना चाहिए ॥११२॥ उन दयाल नाभिराय कुलकरने हाथीके कुम्भस्थलपर थाली आदि अनेक प्रकारके पात्रोंको मिट्टीसे निर्मापित कराया ॥११३॥ तब इनको आदि लेकर और भी अनेक उपायोंके बतलानेसे प्रसन्नताको प्राप्त हुए प्रजाके लोग उक्त नाभिराय कुलकरका सत्कार करके उसके द्वारा निर्दिष्ट समयोचित आजीविकाको करने लगे ।। ११४॥
भोगभूमि अवस्थाका विनाश होनेपर प्रजाके हितैषी होकर उत्पन्न हुए नाभिराय कुलकर उस समय कल्पवृक्ष की अवस्थाको प्राप्त हुए । अभिप्राय यह कि भोगभूमि अवस्थाके वर्तमान होनेपर जिस प्रकार अभीष्ट सामग्रीको देकर कल्पवृक्ष उन प्रजाजनोंका साक्षात् उपकार करते थे उसी प्रकार चूंकि नाभिराय कुलकरने तब भोगभूमि अवस्थाके विनष्ट हो जानेपर उक्त प्रजाजनोंको आजीविकाके उपाय बतलाकर उनका महान् उपकार किया था, अत एव वे उन्हें कल्पवृक्ष जैसे प्रमाणित हुए ॥११५॥ जिन जिन प्रतिश्रुति आदि कुलकर पुरुषोंका पूर्व में क्रमसे वर्णन किया गया है वे पूर्व जन्ममें विदेह क्षेत्रोंके भीतर महान् कुलोंमें उत्पन्न हुए थे ॥११६॥ वे सम्यक्त्वग्रहण करनेके पहिले यथायोग्य पात्रदानादिस्वरूप पुण्यबन्धक अनुष्ठानोंके द्वारा भोगभूमिजोंकी आयुको बांधकर और फिर जिन भगवान्के समीपमें क्षायिक सम्यक्त्वको ग्रहण करके पूर्वश्रुतके धारी होते हुए आयुके अन्तमें यहां उत्पन्न हुए थे ।।११७-११८॥ उनमें कितने ही जातिस्मरणसे सहित थे और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे। इसीलिये उन्होंने स्मरण करके प्रजाजनोंके लिये इस नियोगका उपदेश दिया था ॥११९।। ये प्रजाजनोंकी आजीविकाके उपायका मनन करने अर्थात् जाननेके कारण 'मनु' तथा आर्यजनोंके कुलोंकी रचना करनेसे 'कुलकर' माने गए हैं ॥१२०॥ इसी प्रकार
१५ पुगेक्षु। २ आ प निर्वतिकानि । ३ प संस्याय ।
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