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________________ ९४] लोकविभागः [५.१०१युगमुख्यमुपासीना नाभि मनुमपश्चिमम्' । ते तं विज्ञापयामासुरिति दीनगिरो नराः ॥ १०१. जीवामः कथमेवाद्य नाथानाथा विना द्रुमैः । कल्पदायिभिराकल्पमविस्मारपुण्यकाः ॥ १०२ इमे केचिदितो देव तरुभेदा: समुत्थिताः । शाखाभिः फलनम्राभिराह्वयन्तीव नोऽधुना ॥ १०३ किमिमे परिहर्तव्याः किं वा भोग्यफला इमे । फलेग्रहीनिमेऽस्मान् वानिग्रहन्त्यनुपान्ति वा ॥१०४ अमीषामुपशल्येषु केप्यमी तृणगुल्मकाः । फलनम्रशिखा भान्ति विश्वदिक्कमितोऽमुतः ॥ १०५ क एषामुपयोगः स्याद्विनियोज्याः कथं नु वा । किमिमे स्वरसंग्राह्या न वेतीदं वदाद्य नः ॥१०६ त्वं देव सर्वमप्येतद्वेत्सि नाभेऽनभिज्ञकाः । पृच्छामो वयमद्यास्तितो ब्रूहि प्रसीद नः ॥ १०७ इति कर्तव्यतामूहानतिभीतांस्तदार्यकान् । नाभिन भेयमित्युक्त्वा व्याजहार पुन: स तान् ॥१०८ इमे कल्पतरुच्छेदे द्रुमाः पक्वफलानताः । युष्मानद्यानुगृहन्ति पुरा कल्पद्रुमा यथा ॥ १०९ भद्रकास्तदिमे भोग्याः कार्या न भ्रान्तिरत्र वः । अमी च परिहर्तव्या दूरतो विषवृक्षकाः ॥११० इमाश्च नामोषधयः स्तम्बकर्यादयो मताः । एतासां भोज्यमन्नाद्यं व्यञ्जनाद्यैः" सुसंस्कृतम् ॥१११ उठे थे ॥१०॥ तब उन सबने युगके नेता स्वरूप अन्तिम कुलकर नाभिरायके समीप जाकर दीन वचनोंमें उनसे इस प्रकार निवेदन किया ॥१०१।। हे नाथ ! जो कल्पवृक्ष कल्पित (इच्छित) वस्तुओंके देनेवाले थे और इसीलिये जिनको कल्पकाल पर्यंत कभी भुलाया नहीं जा सकता है; उनके विना आज हम अनाथ हुए पापी जन किस प्रकारसे जीवित रहें ? ॥१०२॥ हे देव ! इधर जो ये कितने ही विभिन्न जातिके पेड़ उत्पन्न हुए हैं वे फलभारसे नम्रीभूत हुई अपनी शाखाओंके द्वारा मानों इस समय हमें बुला ही रहे हैं। क्या इनको छोड़ा जाय, अथवा इनके फलोंका उपयोग किया जाय ? फलोंके ग्रहण करनेपर ये हमारा निग्रह करेंगे अथवा पालन करेंगे? ॥१०३-१०४। इधर उन वृक्षोंके समीपकी भूमिमें सब ओर फलोंसे नम्र हुई शिखाओंसे सुशोभित जो ये कितनी ही क्षद्र झाडियां शोभायमान हो रही हैं उनका क्या उपयोग हो सकता है और किस प्रकारसे वे काममें लायी जा सकती हैं, क्या इनका इच्छानुसार संग्रह किया जा सकता है अथवा नहीं; इन सब बातोंको आज हमें बतलाइये ।।१०५-१०६॥ हे नाभिराय देव ! आप इस सभीको जानते हैं और हम इससे अनभिज्ञ हैं, इसीलिये हम आज दुखित होकर आपसे पूछ रहे हैं। अत एव आप प्रसन्न होकर इन सब बातोंको हमें समझाइये ॥१०७॥ इस प्रकार कर्तव्य-अकर्तव्यके विषयमें विमूढ होकर अत्यन्त भयको प्राप्त हुए उन आर्य पुरुषोंको ‘आप लोग भयभीत न हों' ऐसा कहकर नाभिराय इस प्रकार बोले ॥१०८।। कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर फलोंके भारसे नम्रीभूत हुए ये जो वृक्ष उत्पन्न हुए हैं वे आप लोगोंका इस समय उसी प्रकारसे उपकार करेंगे जिस प्रकार कि पहिले कल्पवृक्ष किया करते थे ।।१०९।। इसलिये हे भद्र पुरुषो! इनका उपयोग कीजिए, इनके विषय में आप किसी प्रकारका सन्देह न करें। परन्तु ये जो सामने विषवक्ष हैं उनका दूरसे ही परित्याग कीजिये ॥११०॥ इनके अतिरिक्त ये स्तम्बकरी आदि औषधियां मानी गई हैं। व्यंजन आदिकोंसे सुसंस्कृत किये गये १ प मनुं पश्चिमम् । २ प्रतिषु मुपशशल्येषु । ३ प्रतिषु नाभि भय । ४ प भद्रिका । ५ आदिप. व्यञ्जनाद्यः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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