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-५.१०० ] पञ्चमो विभागः
[९३ तस्य काले सुतोत्पत्तौ नाभिनालमदृश्यत । स तन्निकर्तनोपायमादिशन्नाभिरित्यभूत् ॥ ८९ तस्यैव काले जलदाः कालिकाः करत्विषः । प्रादुरासन्नभोभागे सान्द्रा सेन्द्रशरासनाः ॥ ९० शनैःशनैर्विवृद्धानि क्षेत्रेश्वविरलं तदा । सस्यान्यकृष्टपच्यानि' नानाभेदानि सर्वतः ॥९१ प्रजानां पूर्वसुकृतात् कालादपि च तादृशात् । सुपक्वानि यथाकालं फलदायीनि रेजिरे ॥ ९२ तदा पितृव्यतिक्रान्तावपत्यानीव तत्पदम् । कल्पवृक्षोचितं स्थानं तान्यध्याशिषत स्फुटम् ॥९३ नातिवृष्टिरवृष्टिर्वा तदासीत् किंतु मध्यमा। दृष्टिस्तत्सर्वधान्यानां फलावाप्तिरविप्लुता ॥ ९४ षष्टिकाकलमव्रीहियवगोधमकङ्गवः । शामाककोद्रवोदारनीवारवरकास्तथा ॥९५ तिलातस्यौ मसूरश्च सर्षपो धान्यजीरके । मुद्गमाषाढकीराजमाषनिष्पावकाश्चणः ॥ ९६ कुलत्रिपुटा चेति धान्यभेदास्त्विमे मताः । सकुसुम्भाः सकार्पासाः प्रजाजीवनहेतवः ॥ ९७ उपभोग्येषु धान्येषु सत्स्वप्येषु तदा प्रजाः । तदुपायमजानानाः स्वतोऽमर्मुमुहुर्मुहुः२ ॥९८ कल्पद्रुमेषु कात्स्न्येन प्रलोनेषु निराश्रयाः। युगस्य परिवर्तेऽस्मिन् अभूवन्नाकुला कुलाः ॥ ९९ तीव्रायामशनायायामुदीर्णाहारसंज्ञकाः । जीवनोपायशंसोतिव्याकुलीकृतचेतसः ।। १००
धनुष मात्र थी॥८८॥ उसके समयमें सन्तानकी उत्पत्तिके समय नाभिनाल दिखाई देने लगा था। चूंकि उसके छेदनेका उपाय इस कुलकरने बतलाया था, अतः वह 'नाभि' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ ।।८९॥ आकाशमण्डलमें इन्द्रधनुष के साथ कर्तुर (भूरा रंग) कान्तिवाले काले घने मेघोंका प्रादुर्भाव उसके ही समयमें हुआ था ॥९०॥ उस समय खेतोंमें सब ओर अनेक प्रकारके धान्य (अनाज) के अंकुर विना जोते व विना वोये ही धीरे धीरे सघनरूप में वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे। वे समयानुसार प्रजाजनोंके पूर्व पुण्यके वश तथा उस प्रकारके कालके ही प्रभावसे भी पक करके फल देनेके योग्य हो गये थे ॥९१-९२॥ उस समय पिताके स्वर्गस्थ होनेपर जैसे सन्तान उसके स्थानको ग्रहण कर लेती है वैसे ही उन अनाजोंने पूर्वोक्त कल्पवृक्षोंका उचित स्थान ग्रहण कर लिया था ॥९३॥
उस समय न अतिवृष्टि होती थी और न अवृष्टि (वर्षाभाव) भी, किन्तु मध्यम वष्टि होती थी; जिससे विना किसी प्रकारके उपद्रवके समस्त अनाजोंकी फलप्राप्ति होती थी ॥९४॥ षष्ठिक (साठ दिनोंमें पककर तैयार होनेवाली साठी धान), कलम, व्रीहि, जौ, गेहूं, कंगु (कांगणी), श्यामाक (समा), कोद्रव (कोदों), उदार नीवार, वरक, तिल, अलसी, मसूर, सरसों, धनियां, जीरा, मूंग, उड़द, आढकी (अरहर), रोंसा, निष्पावक (मोठ), चना, कुलथी और तेवरा ये अनाजके भेद माने गये हैं। कुसुम्भ और कपासके साथ ये सब प्रजाजनोंकी आजीविकाके कारण माने गये हैं ॥९५-९७॥ उपभोगके योग्य इन अनाजोंके होनेपर भी उनके उपायको न जाननेवाली प्रजा उस समय बार बार मोहको प्राप्त होती थी ॥९८॥ युगके इस परिवर्तनमें जब कल्पवृक्ष पूर्णतया नष्ट हो गये तब निराश्रय होकर प्रजाके लोग आकुलताको प्राप्त हुए ॥९९।। उस समय आहारसंज्ञाकी उदीरणासे तीव्र भूखके लगनेपर जीवित रहने के उपायके विषयमें सन्देहको प्राप्त हुए उन प्रजाजनोंके चित्त अत्यन्त व्याकुल हो
१५ सस्यानकृष्ट । २ आ ब स्वतोमूर्मुहुर्मुहुः, प स्वतोभूर्मुहुर्मुहुः ।
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