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________________ -५.७७ ] पञ्चमो विभागः [ ९१ पद्माङ्गप्रमितायुष्कश्चापानां पञ्चसप्ततिम् । षट्छतान्यप्युदग्रश्री रुच्छ्रिताङ्गो बभूव सः ॥ ६८ तस्य कालेऽभवत्तेषां क्षणं पुत्रमुखेक्षणम् । अदृष्टपूर्वमार्याणां महदुत्रास कारणम् ॥ ६९ ततः सपदि संजातसाध्वसानार्थकांस्तदा । तद्याथात्म्योपदेशेन स संत्रासमथो [ थौ ] ज्झयत् ॥ ७० पुनरप्यन्तरं तावद्वर्षकोटीवलङ्घ्य सः । ' यशस्वानित्यभून्नाम्ना यशस्वी नवमो मनुः ॥ ७१ कुमुदप्रमितं तस्य परमायुर्महीयसः । षट्छतानि च पञ्चाशद्धनूंषि वपुरुच्छ्रितिः ॥ ७२ तस्य काले प्रजा जन्यमुखालोकपुरस्सरम् । कृताशिषः क्षणं स्थित्वा लोकान्तरमुपागमन् ॥ ७३ ततोऽन्तरमतिक्रम्य तत्प्रायोग्याब्दसंमितम् । अभिचन्द्रोऽभवन्नाम्ना चन्द्रसौम्याननो मनुः ॥ ७४ कुमुदाङ्गप्रमायुष्को ज्वलन्मकुटकुण्डलः । पञ्चवर्गाग्रषट्चापशतोत्सेधः स्फुरत्तनुः ॥ ७५ तस्य काले प्रजास्तोकमुखं वीक्ष्य सकौतुकम् । आशास्य क्रीडनं चक्रुनिशि चन्द्राभिदर्शनैः ॥ ७६. पुनरन्तरमुल्लङ्घ्य तत्प्रायोग्यसमा शतैः । चन्द्राभ इत्यभूत् ख्यातश्चन्द्रास्यः कालविन्मनुः ॥ ७७ चक्षुष्मान् नामका आठवां कुलकर उत्पन्न हुआ ।। ६७ ।। वह उन्नत शोभाका धारक कुलकर 'पद्मांग' प्रनाप आयुसे संयुक्त तथा छह सौ पचत्तर ( ६७५) धनु मात्र ऊंचे शरीरवाला था ।। ६८ ।। उसके समयमें जिन आर्यगणोंने [प्रसवके साथ ही मरणको प्राप्त हो जाने के कारण ] पहिले कभी सन्तानका मुख नहीं देखा था 'अब क्षणभर जीवित रहकर उसका मुख देखने लगे थे । यह उन्हें महान् भयका कारण बन गया था ।। ६९ ।। इस कारण उस समय चक्षुष्मान् कुलकरने शीघ्र ही भयसे संत्रस्त उन आर्यगणोंको सन्तानविषयक यथार्थताका उपदेश देकर उनके भयको दूर कर दिया था ।। ७० ।। उसके बाद फिरसे भी उतने ( असंख्यात ) करोड़ वर्षों प्रमाण कुलकर विच्छेदको विताकर यशस्वान् नामका कीर्तिशाली नौवां कुलकर उत्पन्न हुआ ॥ ७१ ॥ उस तेजस्वी महापुरुषकी उत्कृष्ट आयु 'कुमुद' प्रमाण और शरीरकी ऊंचाई छह सौ पचास (६५०) धनुष मात्र थी ।। ७२ ।। उसके समयमें प्रजाजन सन्तानके मुखको देखकर और क्षणभर स्थित रहकर 'जीव, नन्द' आदि आशीर्वचनों को कहते हुए परलोकको प्राप्त होते थे ॥ ७३ ॥ तत्पश्चात् उसके योग्य अर्थात् असंख्यातं करोड़ वर्षों प्रमाण कुलकरविच्छेदको बिताकर चन्द्रमाके समान सौम्य मुखवाला अभिचन्द्र नामका दसवां कुलकर हुआ ।। ७४ ।। चमकते हुए मुकुट एवं कुण्डलोंसे विभूषित वह कुलकर ' कुमुदांग' प्रमाण आयुका धारक तथा पांचके वर्ग (२५) से अधिक छह सौ (६२५) धनुष मात्र ऊंचे देदीप्यमान शरीरसे सुशोभित था. ।। ७५ ।। उसके समयमें प्रजाजन कौतुहलपूर्वक सन्तानके मुखको देखकर और आशीर्वाद देकर रात्रिमें चन्द्रमा आदिको दिखाते हुए उसको खिलाने लगे थे ॥ ७६ ॥ तत्पश्चात् फिर भी उसके योग्य सैकड़ों वर्षों प्रमाण मनुविच्छेदको लांघकर चन्द्रके समान सुन्दर मुखवाला समयज्ञ ( समयकी गतिका जानकार) चन्द्राभ नामक ग्यारहवां प्रसिद्ध १ आ ब यशस्वान्नित्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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