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________________ ९ ] लोकविभागः [५.५९ ततो मनुरसौ मत्वा वाचा सीमविधि व्यधात् । अतः सोमंकराख्यां तैर्लम्मितोऽन्वर्थतां गताम् ॥ पुनर्मन्वन्तरं प्राग्वदतिलङध्य महोदयः । मनुः सीमंधरो नाम्ना समजायत पुण्यधीः ॥ ६० नलिनप्रमितायुको नलिनास्येक्षणद्युतिः । धनुषां पञ्चवर्गाग्रमुच्छ्रितः शतसप्तकम् ॥ ६१ अत्यन्तविरला जाताः क्ष्माजा मन्दफला यदा । नृणां महान् ' विसंवादः केशाकेशि तदावृधत् ॥ ६२ क्षेमवृत्ति ततस्तेषां मन्वानः स मनुस्तदा । सीमानि तरुगुल्मादिचिह्नितान्यकरोत् कृती ॥ ६३ ततोऽन्तरमभूद्भूयोऽप्यसंख्या वर्षकोटयः । तदन्तरव्यतिक्रान्तावभूद्विमलवाहनः ॥ ६४ पद्मप्रमितस्यायुः पद्माश्लिष्टतनोरभूत् । धनुःशतानि सप्तैव तनूत्सेधोऽस्य वर्णितः ॥ ६५ तदुपज्ञं गजादीनां बभूवारोहणक्रमः । कुदाराङकुशपर्याणनुखभाण्डाद्युपक्रमैः ३ ॥ ६६ पुनरन्तरमत्रासीदसंख्येयाब्दकोटयः । ततोऽष्टमो मनुर्जातश्चक्षुष्मानिति शब्दितः ॥ ६७ परस्परमें विवाद होने लगा ।। ५८ ।। तब उस कुलकरने इस विवादको देखकर वचन मात्रसे उनकी सीमाका विधान बना दिया, अर्थात् उनके उपयोग के लिये उसने कुछ अलग अलग वृक्षोंका निर्देश कर दिया । इसी कारण उन आर्यगणोंने इसका ' सीमंकर' यह सार्थक नाम प्रसिद्ध कर दिया ॥ ५९ ॥ तत्पश्चात् फिरसे पहिलेके ही समान असंख्यात करोड़ वर्षों तक कोई कुलकर नहीं हुआ । तब कहीं इतने अन्तरके पश्चात् महान् अभ्युदयसे सम्पन्न पवित्रबुद्धि सीमंधर नामका छटा कुलकर उत्पन्न हुआ ।। ६० ।। कमलके समान मुख एवं नेत्रोंकी कान्तिसे सुशोभित उस कुलकरकी आयु ' नलिन' प्रमाण तथा शरीरकी ऊंचाई पांचके वर्ग ( ५x५ = २५ ) से अधिक सात सौ ( ७२५) धनुष मात्र थी ।। ६१ ।। उस समय जब कल्पवृक्ष बहुत ही थोड़े रह गये और उनकी फलदानशक्ति भी अतिशय मन्द पड़ गई तब उन भोगभूमिज मनुष्यों के बीच केवल महाविसंवाद ही नहीं छिड़ा, बल्कि आपसमें एक दूसरेके बालोंको खींचकर मार पीटकी भी वृद्धि होने लगी ।। ६२ ।। तब उस विद्वान् कुलकरने उन आर्योंके कल्याणको महत्व देकर उक्त कल्पवृक्षों की सीमाओं को – जिन्हें सीमंकर कुलकरने वचन मात्र से ही बद्ध किया था अन्य वृक्ष एवं झाड़ी आदिको चिह्नित कर दिया ॥ ६३ ॥ तत्पश्चात् फिरसे भी असंख्यात करोड़ वर्ष प्रमाण मन्वन्तर हुआ, तब कहीं इतने अन्तरके वीत जानेपर विमलवाहन नामका सातवां कुलकर प्रादुर्भूत हुआ ।। ६४ ।। लक्ष्मीसे आलिंगित ऐसे सुन्दर शरीरको धारण करनेवाले इस कुलकरकी आयु ' पद्म प्रमाण तथा शरीरकी ऊंचाई सात सौ ( ७००) धनुष मात्र कही गई है ।। ६५ ।। इस समय विमलवाहन कुलकरके उपदेशानुसार कुदार, अंकुश, पलान और मुखभाण्ड ( तोबरा) आदिकी प्रवृत्तिपूर्वक हाथी आदिकों की सवारी प्रारम्भ हो गई थी ॥ ६६ ॥ इसके पश्चात् यहां फिरसे भी असंख्यात करोड़ वर्ष प्रमाण अन्तर हुआ, तब कहीं १ आप महा । २ आ ब केशि तदा वृदंत्, प 'केशि वृदंत् । ३ ब कुथारांकुश' । Jain Education International For Private & Personal Use Only 6 www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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