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________________ -५.५८] पञ्चमो विभाग : [८९ पुरा किल मृगा भद्राः प्रजानां हस्तलालिताः । तदा तु विकृति' भेजुात्तास्या भीषणस्वनाः ॥ तेषां विक्रियया सान्तर्गर्जया तत्रसुः प्रजाः । इमे भद्रमृगाः पूर्वं संवसन्तोऽनुपद्रवाः ॥ ५० इदानीं तु विना हेतोः श्रृङ्गरभिभवन्ति नः । इति तद्वचनाज्जातसौहार्दो मनुरब्रवीत् ॥५१ कर्तव्यो नैषु विश्वासो बाधाः कुर्वन्त्युपेक्षिताः । इत्याकर्ण्य वचस्तस्य परिजहरुस्तदा मृगान् ॥५२ मन्वन्तरमसंख्येयाः समाकोटीविलङघ्य च । अग्रेसरः सतामासीन्मनुः क्षेमंधराह्वयः ॥ ५३ तुटितान्दमितं तस्य बभूवायुर्महात्मनः । शतानि सप्त चापानां सप्ततिः पञ्च चोच्छितिः ॥५४ यदा प्रबलतां याताः पाकसत्त्वा महाक्रुधः । तदा लकुटयष्टचाद्यैः स रक्षाविधिमन्वशात् ॥ ५५ पुनमन्वन्तरं तत्र संजातं पूर्ववत् क्रमात् । मनुः सीमंकरो जज्ञे प्रजानां पुण्यपाकतः ॥ ५६ कमलप्रमितं तस्य बभूवायुमहाधियः । शतानि सप्त पञ्चाशदुच्छयो धनुषां मतः ।। ५७ कल्पाअघ्रिपा यदा जाता विरला मन्दकाः फलैः। तदा तेषु विसंवादो बभूवैषां परस्परम् ॥ ५८ आठ सौ (८००) धनुष मात्र थी ॥४८॥ जो भद्र मृग (पशु) पहिले प्रजाके हाथों द्वारा परिपालित थे वे उस समय मुंह फाड़कर भयानक शब्दको करते हुए विकारको प्राप्त हो चुके थे ॥ ४९ ।। उनके इस अन्तर्गर्जना युक्त विकारसे प्रजाजन भयभीत होने लगे। [तब उन्होंने क्षेमंकर कुलकरसे निवेदन किया कि ] ये भद्र मृग पहिले यहां विना किसी प्रकारके उपद्रवके रहते थे । किन्तु अब वे अकारण ही हम लोगोंको सीगोंसे अभिभूत करते हैं । इस प्रकारके उन आर्योंके वचनोंसे सौहार्दको प्राप्त होकर वह कुलकर बोला कि अब इनके विषयमें विश्वास न करो, इनकी यदि उपेक्षा की जायगी तो वे बाधा पहुंचा सकते हैं। तब उसके इन वचनोंको सुनकर आर्य जन उन मृगोंका परिहार करने लगे ।। ५०-५२ ॥ अनन्तर असंख्यात करोड़ वर्षों प्रमाण मन्वन्तरका अतिक्रमण करके सज्जनोंमें श्रेष्ठ क्षेमंधर नामका चौथा कुलकर उत्पन्न हुआ ।। ५३ ॥ उस महात्माकी आयु त्रुटित वर्ष प्रमाण और शरीरकी ऊंचाई सात सौ पचत्तर (७७५) धनुष मात्र थी ।। ५४ ॥ जब ये क्रूर प्राणी अतिशय क्रोधित होकर प्रबलता (क्रूरता) को प्राप्त होने लगे तब क्षेमंधर कुलकरने उनसे दण्ड व लाठी आदिकोंके द्वारा अपनी रक्षा करनेकी विधि बतलायी ॥ ५५॥ तत्पश्चात् पहिलेके समान क्रमसे असंख्यात करोड़ वर्षों प्रमाण मन्वन्तर हुआ, अर्थात् क्षेमंधर कुलकरके स्वर्गस्थ हो जानेपर असंख्यात करोड़ वर्षों तक कोई कुलकर नहीं हुआ। उसके पश्चात् प्रजाजनोंके पुण्योदयसे सीमंकर नामका पांचवां कुलकर उत्पन्न हुआ ॥५६॥ उस महाबुद्धिमान् कुलकरकी आयु 'कमल' प्रमाण और शरीरकी ऊंचाई सात सौ पचास (७५०) धनुष मात्र मानी गई है ॥ ५७ ॥ उस समय जब कल्पवृक्ष विरल हो गये अर्थात् जहां तहां संख्यामें वे थोड़े-से रह गये तथा फलोंसे मन्द भी पड़ गये तब उनके विषयमें इन आर्यगणोंके बीच १५ विहति । २५ भीषणा' । ३ आ प सप्तति । ४ आ प पंचकोच्छितिम् । ५ आप यष्टाद्यैः । ६ आ ब 'दुच्छायो। लो. १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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