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-५.३८] पञ्चमो विभागः
[८७ पञ्चस्वद्रिषु नीलेषु निषधेषु कुरुष्वपि । वर्धमानोभयान्ताभ्यां प्रथमा नियु [य] ता समा ॥ ३५ हिमवद्रुग्मिर्शलेषु रम्यकेषु हरिष्वपि । वर्धमानोभयान्ताभ्यां द्वितीया नियु [य] ता समा ॥ ३६ श्रृङ्गिक्षुल्लहिमाद्वेषु तत्पाश्र्वासु च भूमिषु । तृतीया तु समा नित्यमन्तरद्वीपकेषु च ॥३७ पल्योपमाष्टमे भागे जायन्ते कुलकृन्नरा:' । चतुर्दश परस्तेभ्य आदिराजोऽपि जायते ॥ ३८
उक्तं चार्षे [आ. पु. ३,५५-५७; ३-६३ आदि]ततस्तृतीयकालेऽस्मिन् व्यतिक्रामत्यनुक्रमात् । पल्योपमाष्टभागस्तु यदास्मिन् परिशिष्यते ॥ ६ कल्पानोकहवीर्यागां क्रमादेव परिच्युतौ । ज्योतिरङ्गास्तदा वृक्षा गता मन्दप्रकाशताम् ॥७ पुष्पदन्तावथाषाढयां पौणिमास्यां स्फुरत्प्रभो। सायाह्न प्रादुरास्तां तौ गगनोभयभागयोः ॥ ८ प्रतिश्रुतिरितिख्यातस्तदाकुलधरोऽग्निमः । विभ्रल्लोकातिगं तेजः प्रजानां नेत्रमुद्बभौ २ ॥९ पल्यस्य दशमो भागस्तस्यायुजिनदेशितम् । धनुःसहस्रमुत्सेधः शतैरधिकमष्टभिः ॥ १० अदृष्टपूर्वी तौ दृष्ट्वा स भोतान् भोगभूमिजान् । भोतेनिवर्तयामास तत्स्वरूपमिति ब्रुवन् ॥ ११ एतौ तौ प्रतिदृश्येते सूर्यचन्द्रमसौ ग्रहौ । ज्योतिरङ्गप्रभापायात् कालह्रासवशोद्भवात् ॥ १२
पांच नील पर्वतोपर, पांच निषधपर्वतोंपर और पांच कुरुक्षेत्रोंमें भी वर्धमान उभय अन्तोंसे प्रथम (सुषमासुषमा) काल नियत है ॥ ३५ ॥ हिमवान् पर्वतोपर, रुक्मि पर्वतोपर, रम्यक क्षेत्रोंमें और हरिक्षेत्रोंमें भी वर्धमान उभय अन्तोंसे द्वितीय (सुषमा) काल नियत है ॥ ३६ ॥ शिखरी पर्वतोपर, क्षुद्र हिमवान् पर्वतोंपर उनकी पार्श्वभूमियों (हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों) में तथा अन्तरद्वीपोंमें भी सदा तृतीय (सुषमादुःषमा) काल रहता है ॥ ३७ ॥ तृतीय काल में पल्योपमका आठवां भाग (1) शेष रह जानेपर [ भरत और ऐरावत क्षेत्रों के भीतर ] चौदह (१४) कुलकर पुरुष उत्पन्न होते हैं। उनके पश्चात् भरतक्षेत्रमें आदिनाथ भी जन्म लेते हैं ॥ ३८ ॥ आर्ष (आदिपुराण) में कहा भी है -
तत्पश्चात् अनुक्रमसे इस तृतीय कालके वीतनेपर जब उसमें पल्योपमका आठवां भाग (१) शेष रहता है तब क्रमसे कल्पवृक्षोंकी शक्तियोंके क्रमशः क्षीण हो जानेपर ज्योतिरंग कल्पवृक्ष मंदप्रकाशरूपताको प्राप्त हो जाते हैं ।। ६-७॥ तदनन्तरआषाढी पूर्णिमाके दिन सायंकालमें आकाशके उभय (पूर्व-पश्चिम) भागोंमें प्रभासे प्रकाशमान वे पुष्पदन्त ( सूर्य व चन्द्र ) प्रकट हुए ॥ ८॥ उस समय अलौकिक तेजको धारण करनेवाला प्रतिश्रुति इस नामसे प्रसिद्ध प्रथम कुलकर प्रजाके नेत्रके समान सुशोभित हुआ ॥९॥ जिन भगवान् के द्वारा उसकी आयु पल्यके दसवें भाग ( 4 )प्रमाण तथा शरीरकी ऊंचाई एक हजार आठ सौं (१८००) धनुष मात्र निर्दिष्ट की गई है ॥ १० ॥ उस प्रतिश्रुति कुलकरने पूर्वमें कभी न देखे गये उन सूर्यचन्द्रको देखकर भयभीत हुए प्रजाजनके भयको उक्त सूर्य-चन्द्रके स्वरूपको इस प्रकारसे बतलाकर दूर किया ॥११॥ ये सूर्य-चन्द्र ग्रह अब कालकी हानिके प्रभावसे ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्षोंकी
१५ 'कुलकिन्नराः । २ ब पौर्णमास्यां । ३ आ. पु. नेत्रवद्वभौ ।
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