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________________ ८६ ] लोकविभागः [५.३० न राजानो न पाषण्डा' न चोरा नापि शत्रवः । न कर्माणि न शिल्पानि न दारिद्रयं न चामयाः ॥ सूरूपाः सुभगा नाय गीतवादित्रपण्डिताः । एकभर्तृ सुखा नित्यं निःप्रयोजनसौहृदाः ॥ ३१ रत्नैराभरणैर्दीप्ता गन्धमाल्य विभूषिताः । दिव्यवस्त्र समाच्छन्ना रतिरागपरायणाः ।। ३२ अन्योन्यar [r] नासक्ता अन्योऽन्यस्यानुवतनः । अन्योऽन्यहितमिच्छन्तोऽन्योन्यं न त्यजन्ति ते ॥ ३३ क्षुतका सितमात्रेण त्यक्त्वान्ते जीवितं स्वकम् । सौधर्मव्यन्तराद्येषु जायन्तेऽल्पकषायिणः ॥ ३४ उक्तं च त्रिलोकसारे [ ७८६,७८९-९१] - वदरक्खामलयप्पम कंप्पदुमदिष्ण दिव्वआहारा । वरपहुदितिभोगभुमा मंदकसाया विणोहारा ॥ जादजुगले दिवसा सग सग अंगुट्ठलेहरंगिदये । अथिरथिरगदिकलागुणजोव्वणदंसणगहे जंति ॥ तपदीणमादिमसंह दिसंठाणमज्जणामजुदा । सुलहेसु वि णो तित्ती तेंसि पच्चक्खविसएस ||४ चरमे खुदजंभवसा णरणारि विलीय सरदमेहं वा । भवणतिगामी मिच्छा सोहम्मदुजाइणो सम्मा ॥ प्रिय पदार्थोंका वियोग नहीं होता ।। २९ ।। इन कालोंमें न राजा होते हैं, न पाखण्डी होते हैं, न चोर होते हैं, न शत्रु होते हैं, न कर्म ( कृषि आदि) होते हैं, न शिल्पकार्य होते हैं, न दरिद्रता होती है, और न रोग भी होते हैं ॥ ३० ॥ इन कालों में स्त्रियाँ सुन्दर रूपसे सहित, सुभग, गीत व वादित्रमें निपुण सदा एक ही पति सुखका अनुभव करनेवाली, निःस्वार्थ सौहार्द से सम्पन्न, रत्नों व आभरणोंसे देदीप्यमान, सुगन्धित मालाओं से विभूषित, दिव्य वस्त्रोंसे अलंकृत और रतिरागमें परायण होती हैं ।। ३१३२॥ परस्परके दर्शन में आसक्त, परस्परकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाले और परस्परके हितके इच्छुक वे युगल एक दूसरेको नहीं छोड़ते हैं ||३३|| अन्तमें वे ( नर-नारी ) क्रमश: छींक और जृंभा मात्र से अपने जीवितको छोड़कर अल्प कषायसे संयुक्त होनेके कारण सौधर्मादिक विमानवासी देवोंमें अथवा व्यन्तरादिकोंमें उत्पन्न होते हैं ।। ३४ ।। त्रिलोकसारमें कहा भी है उत्तम आदि तीन भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुए नर-नारी क्रमसे बेर, बहेड़ा और आंवले - के प्रमाण कल्पवृक्षोंसे दिये गये दिव्य आहारके करनेवाले, मन्दकषायी और मल-मूत्र से रहित होते हैं ।। २ ।। इन उत्पन्न हुए युगुलोंमें अंगूठेके चूसने, उठकर खड़े होने, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कला-गुणग्रहण, यौवनग्रहण और सम्यग्दर्शनग्रहण में सात सात दिन व्यतीत होते हैं । अर्थात् उनंचास (४९) दिन में यौवनको प्राप्त होकर सम्यग्दर्शनग्रहणके योग्य हो जाते हैं ॥ ३ ॥ उन दम्पतियों के प्रथम ( वज्रर्षभवज्रनाराच) संहनन और प्रथम ( समचतुरस्र ) संस्थान होता है । आर्य इस नाम से संयुक्त उन दम्पतियोंको पंचेन्द्रियजनित विषयोंके सुलभ होनेपर भी तृप्ति नहीं होती है ॥ ४ ।। अन्तमें वे नर-नारी क्रमसे छींक और जृंभाके वश शरत्कालीन मेघके समान विलीन होकर यदि मिथ्यादृष्टि हुए तो भवनत्रिक देवोंमें और यदि सम्यग्दृष्टि हुए तो सौधर्मादिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं ।। ५ ॥ १ प पाखंडा । २ ब नपि च शत्रवः । ३ ब नीतवादित्र । ४ [ 'न्तः अन्योन्य] ५ आ प आहारो ६ आप रग्गिदये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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