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________________ -५.२९] पञ्चमो विभागः [८५ त्रिषष्टि त्रिशतं भेदान् शाकानां रसनप्रियान् । चक्रवर्यन्नतो मृष्टान् ददते भोजनद्रुमाः ॥ १९ वल्लीगुल्मद्रुभोद्भूतं सहताहतघोडश । विधं वर्णद्वयं पुष्पं मालाङ्गागाः फलन्ति च ॥ २० चन्द्रसूर्यप्रभावन्तो द्योतयन्तो दिशो दश । कुर्वाणा: संततालोकं ज्योतिरङ्गा' वसन्ति च ॥ २१ नन्द्यावर्तादिकद्वयष्टभेदान् प्रासादकान् शुभान् । रत्नहेममयान् नित्यं ददते चालयाङ्गकाः ॥२२ क्षौमकौशेयकासपट्टचीनादिभिः समम् । वस्त्रं चित्रं मृदुश्लक्ष्णं इस्त्राङ्गा ददते २ द्रुमाः ।। २३ मूलपुष्पफलैरिष्टवल्लीगुल्मक्षुपद्रुमाः । कल्पागाः परितः सन्ति रम्यच्छाया मनोरमाः ॥ २४ दिवसैरेकविंशत्या पूर्यन्ते यौवनेन च । प्रमाणयुक्तसर्वाङ्गा द्वात्रिशल्लक्षणाङ्किताः ॥ २५ मार्दवार्जवसंपन्नाः सत्यमुष्टसुभाषिताः । मृदङ्गमेघनिःस्वाना नवसहस्रभविक्रमाः ॥ २६ प्रकृत्या धीरगम्भीरा निपुणाः स्थिरसौहृदाः । अदृष्टललिताचाराः प्रसन्नाः प्रीतिबुद्धयः ॥ २७ क्रोधलोभभयद्वेषमानमत्सरवजिताः । ईासूयापवादानां न विदन्ति सदा रसम् ॥ २८ सेवादुःखं परनिन्दा ईप्सितस्यानवापनम् । प्रियेभ्यो विप्रयोगश्च तिसृष्वपि समासु न ॥ २९ भेदोंको, सोलह प्रकारके ओदन (भात) को, चौदह प्रकारकी दालोंको, एक सौ आठ प्रकारके स्वाद्य भोजनको तथा रसना इन्द्रियको प्रिय ऐसे तीन सौ तिरेसठ (३६३) शाकके भेदोंको ; इस प्रकार चक्रवर्तीके अन्नसे स्वादिष्ट भोजनोंको देते हैं ।।१८-१९॥ मालांग वृक्ष वेलों, झाडियों एवं वृक्षोंसे उत्पन्न सोलह हजार (१६०००)प्रकारके पुष्पोंको उत्पन्न करते हैं।।२०।। चन्द्र एवं सूर्य जैसी प्रभासे संयुक्त होकर दस दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले ज्योतिरंग वृक्ष निरन्तर प्रकाश करते हुए स्थित रहते हैं ॥२१॥ आलयांग जातिके कल्पवृक्ष नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकारके रत्नमय एवं सुवर्णमय उत्तम भवनोंको नित्य ही प्रदान करते हैं ।। २२ ।। वस्त्रांग वृक्ष क्षौम (सनका वस्त्र), कौशेय (रेशमी), कार्पास (कपासनिमित) वस्त्र तथा चीनदेशीय आदि वस्त्रोंके साथ कोमल एवं चिक्कण विचित्र वस्त्रोंको देते हैं ।। २३ ।। वल्ली, गुल्म (झाड़ी), क्षुप (छोटी शाखाओं एवं मूलोंवाला) और द्रुम (वृक्ष) रूप रमणीय छायावाले मनोहर कल्पवृक्ष वहां अभीष्ट मूलों, पुष्पोंऔर फलोंके साथ सब ओर होते हैं ।। २४ ।। ___ इन तीन कालों में प्रमाणयुक्त सब अवयवोंसे संयुक्त तथा बत्तीस लक्षणोंसे चिह्नित नर-नारी इक्कीस (२१) दिनोंमें यौवनसे परिपूर्ण हो जाते हैं। ये नर-नारी मार्दव एवं आर्जवसे सहित, सत्य व मधुर भाषण करनेवाले, मृदंग अथवा मेघके समान ध्वनिसे संयुक्त, नौ हजार (९०००) हाथियों के बराबर पराक्रमसे सहित, स्वभावतः धीर और गम्भीर, निपुण, स्थिर सौहादसे सम्पन्न, अदृष्ट ललित आचारवाले, प्रसन्न, प्रीतिबुद्धि तथा क्रोध, लोभ, भय, द्वेष, मान एवं मत्सरतासे रहित होते हैं । वे ईर्ष्या, असूया और परनिन्दाके आनन्दको कभी नहीं जानते हैं ।। २५-२८ ॥ तीनों ही कालोंमें उन नर-नारियोंके सेवाका दुख, परनिन्दा, अभीष्टकी अप्राप्ति तथा १५ रिंगा । २ व दधते । ३ प तिसृश्वपि सभासु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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