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लोकविभागः
[४.८७
रुचका रुचककोतिश्च कान्ता रुचकादिका । रुचकैव प्रभान्त्यान्या' जातिकर्मसमापिकाः॥ ८७ तत्कूटाभ्यन्तरे दिक्षु चत्वारः सिद्धकूटकाः । पूर्वमानसमा मानश्चत्वारोऽत्र जिनालयाः ॥ ८८ विदिक्षु दिक्षु चाप्यस्य अष्टास्वन्तरदिक्षु च । चैत्यानि षोडशेऽष्टानि समान्यपि च नैषधैः ॥ ८९
__उक्तं च [ति. प. ५,१६६] दिसिविदिसंतरभागे चउ चउ अट्ठाणि सिद्धकूडाणि । उच्छेहप्पहुदीए णिसहसमा केइ इच्छन्ति ॥५ स्वयंभूरमणो द्वीपश्चरमस्तस्य मध्यगः । सहस्रमवगादश्च गिरिरस्ति स्वयंप्रभः ॥ ९० रत्नांशुद्योतिताशस्य तस्य वेदीयुतस्य च । विष्कम्भोत्सेधकूटानां मानं दृष्टं जिनेश्वरैः ॥ ९१ मानुषोत्तरशैलश्च कुण्डलो रुचकाचलः । स्वयंप्रभाचलश्चैते वलयाकृतयो मताः ॥ ९२
इति लोकविभागे समुद्रविभागो नाम चतुर्थप्रकरणं समाप्तम् ॥ ४ ॥
कूट स्थित हैं। इनका प्रमाण पूर्व कूटोंके समान है ।। ८६ ।। उनके ऊपर रुचका, रुचककीर्ति, रुचककान्ता और रुचकप्रभा ये चार दिक्कुमारिकायें रहती हैं जो तीर्थंकरोंके जातकर्मको समाप्त किया करती हैं ॥ ८७ ॥
उन कूटोंके अभ्यन्तर भागमें पूर्वादिक दिशाओंमें चार सिद्धकूट स्थित हैं । इनके ऊपर पूर्वोक्त जिनभवनोंके समान प्रमाणवाले चार जिनभवन हैं ॥८८॥ इसकी दिशाओंमें, विदिशाओंमें और आठ अन्तर्दिशाओंमें भी सोलह चैत्यालय स्वीकार किये गये हैं जो प्रमाणमें निषधपर्वतस्थ जिनभवनोंके समान हैं ॥ ८९ ॥ कहा भी है -
रुचक पर्वतके ऊपर दिशाओंमें चार, विदिशाओंमें चार और अन्तर्दिशाओंमें आठ इस प्रकार सोलह सिद्धकूट स्थित हैं जो ऊंचाई आदिमें निषध पर्वतके सिद्धकूट के समान हैं ; ऐसा कुछ आचार्य स्वीकार करते हैं ॥ ५ ॥
अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है । उसके मध्यमें एक हजार योजन अवगाहवाला स्वयंप्रभ पर्वत स्थित है ॥ ९० ॥ रत्नकिरणोंसे दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले एवं वेदीसे संयुक्त उस पर्वतके विस्तार, ऊंचाई और कूटोंका प्रमाण जितना जिनेन्द्रोंके द्वारा देखा गया है उतना जानना चाहिये । अभिप्राय यह है कि उसका उपदेश नष्ट हो चुका है ।।९१ ॥ मानुषोत्तर शैल, कुण्डलगिरि, रुचक पर्वत और स्वयंप्रभाचल ये चार पर्वत वर्तुलाकार माने गये हैं ।। ९२ ॥
इस प्रकार लोकविभागमें समुद्रविभाग नामका चौथा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ ४ ॥
१ब प्रभान्त्यन्या।
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