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________________ -४.६५] चतुर्थो विभागः [७९ पञ्चभ्यः खलु शून्येभ्यः परं द्वे सप्त चाम्बरम् । एक त्रीणि च रूपं च चक्रवालस्य पार्थवम् ॥ ५६ । १३१०७२०००००। अरिष्टाख्योऽन्धकारोऽस्माद् दूरमुद्गत्य सागरात् । आच्छाद्य चतुरः कल्पान् ब्रह्मलोकं समाश्रितः।। मृदङगसदृशाकाराः कृष्णराज्यश्च सर्वतः । यमकावेदिकातुल्या अष्टौ तस्य बहिःस्थिताः ।। ५८ देवा अल्पर्द्ध यस्तस्मिन् दिग्मूढाश्चिरमासते । महद्धिकप्रभावेन सह यान्ति न चान्यथा ।। ५९ द्वीपस्य कुण्डलाख्यस्य कुण्डलाद्रिस्तु मध्यमः । पञ्चसप्ततिमुद्विद्धः सहस्राणां महागिरिः ।। ६० मानुषोत्तर विष्कम्भाद् व्यासो दशगुणस्य च । तस्य षोडशकूटानि चत्वारि प्रतिदिशं क्रमात् ।।६१ १०२२० । ७२३० । ४२४० । वज्र वज्रप्रभं चैव कनकं कनकप्रभम् । रजतं रजताभं च सुप्रभं च महाप्रभम् ।। ६२ अङ्कमङ्कप्रभं चेति मणिकूट मणिप्रभं । रुचकं स्वकाभं च' हिमवन्मन्दराख्यकम् ।। ६३ नान्दनः सममानेषु वेश्मान्यपि समानि तैः । जम्बूनाम्नि च तेऽन्यस्मिन् विजयस्येव वर्णना ।। ६४ चैत्यान्यनादिसिद्धानि मध्ये तुल्यानि नैषधे. । दिक्षु चत्वार्यनादित्वं यथा संसारमोक्षयोः ।। ६५ समुद्र स्थित है। इस समुद्रका विस्तार कहा जाता है, उसे सुनिये ।। ५५ ॥ पांच शून्योंके आगे दो, सात, शून्य, एक, तीन और एक (१३१०७२०००००) इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या प्राप्त हो उतने योजन मात्र मण्डलाकारसे स्थित उक्त समुद्र का विस्तार जानना चाहिये ।। ५६ ।। इस समुद्रसे दूर ऊपर उठा हुआ अरिष्ट नामका अन्धकार प्रथम चार कल्पोंको आच्छादित करके ब्रह्मलोक (पांचवा कल्प) को प्राप्त हुआ है ।। ५७ ॥ मृदंगके समान आकारवाली आठ कृष्णराजियां उसके बाह्य भागमें सब ओर यमका वेदिकाके समान स्थित हैं ।। ५८ ॥ उस सघन अन्धकारमें अल्पद्धिक देव दिशाभेदको भूलकर चिर काल तक स्थित रहते हैं। वे यहां से दूसरे मद्धिक देवों के प्रभावसे उनके साथ निकल पाते हैं, अन्य प्रकारसे नहीं निकल सकते हैं ।।५९।। आगे कुण्डल नामक ग्यारहवें द्वीपके मध्य में कुण्डल पर्वत स्थित है। वह महापर्वत पचत्तर हजार (७५०००) योजन ऊंचा है। विस्तार उसका मानुषोत्तर पर्वतसे दसगुणा है (मूल विस्तार १०२२-१०=१०२२०, मध्य विस्तार ७२३४१० =७.३०, शिखर विस्तार ( ४२४ x१०=४२४० यो.) । उसके ऊपर सोलह कूट हैं जो निम्न क्रमसे प्रतिदिशामें चार चार हैं - वज्र, वज्रप्रभ, कनक, कनकप्रभ; रजत, रजताभ, सुप्रभ, महाप्रभ ; अंक, अंकप्रभ, मणिकूट, मणिप्रभ; तथा रुचक, रुचकाभ, हिमवान् और मन्दर ॥ ६०-६३ ॥ ये कट विस्तारादिके प्रमाण में नन्दन वनमें स्थित कूटोंके समान हैं। यहाँ जो भवन हैं वे भी नन्दनवनके भवनोंके समान हैं । उनका वर्णन दूसरे जंबूद्वीपमें स्थित विजय देवके नगरोंके समान है ।। ६४ ।। । उक्त कूटोंके मध्यमें दिशाओं में अनादिसिद्ध चार जिनभवन हैं जो निषध पर्वतस्थ जिनभवनोंके समान हैं। इनकी अनादिता ऐसी है जैसी कि संसार और मोक्षकी । ६५ ।। १ ब 'च' नास्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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