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लोकविभागः
[४.४७
षोडशानां च वापीनां मध्ये दधिमुखाद्रयः । सहस्राणि दशोद्विद्धास्तावत्सर्वत्र विस्तृताः ।। ४७
।१००००। सहस्रगाढके वज्रमयाः श्वेताश्च वर्तुलाः । तेषामुपरि वेद्य: स्युर्वनानि विविधानि च ॥ ४८ वापीनां बाहकोणेषु दृष्टा रतिकराद्रयः । समा दधिमुखहँमा: सर्वे द्वात्रिंशदेव ते ।। ४९
. उक्तं च [ति. प. ५, ६९-७०]-- जोयणसहस्सवासा तेत्तियमेत्तोदया य पत्तेक्कं । अड्ढाइज्जसयाई अवगाढा रतिकरा गिरिणो॥ ते चउ-चउकोणेसु एक्केक्कदहस्स होंति चत्तारि। लोयविणिच्छ' [य]कत्ता एवं णियमा परुति।। द्वीपस्य विदिशास्वन्ये चत्वारोऽऽजनपर्वताः । समा रतिकरस्तेऽपि इति सर्वज्ञदर्शनम् ।। ५० सर्वेषु तेषु शैलेषु द्विपञ्चशज्जिनालयाः । भद्रसाल: समा मानस्तान् भक्त्या स्तौमि सर्वदा ।। ५१ प्रतिवत्सरमाषाढ़े कातिके फाल्गुनेऽपि च । अष्टमीतिथिमारभ्य पूणिमान्तं सुरैः सह ।। ५२ सौधर्मचमरेशानवैरोचनसुरेश्वराः । प्राच्यपाचीप्रतीचीषु उदीच्यां क्रमशो मुदा ।। ५३ द्वौ द्वौ यामौ जिनेन्द्राणां महाविभवसंयुताः । प्रादक्षिण्येन कुर्वन्ति महाभक्त्या महामहम् ।। ५४ नन्दीश्वरात्परो द्वीपश्चारुणो नाम कीर्तितः । तस्यारुणवरोऽब्धिश्च विस्तारोऽस्य निशम्यताम् ।।
सोलह वापियोंके मध्य में दस हजार (१००००) योजन ऊंचे और सब जगह उतने (१००००) ही योजन विस्तृत दधिमुख पर्वत स्थित हैं ।। ४७ ।। एक हजार (१०००) योजन अवगाहके भीतर वज्रमय वे पर्वत वर्णसे शुक्ल व गोल आकारसे संयुक्त हैं । उनके ऊपर वेदियां और अनेक प्रकारके वन हैं । ४८ ।।
वापिकाओंके बाह्य कोनोंमें दधिमुख पर्वतोंके समान सुवर्णमय रतिकर पर्वत देखे गये हैं । वे सब पर्वत बत्तीस (३२) ही हैं ॥ ४९ ॥ कहा भी है --
रतिकर पर्वतोंमेंसे प्रत्येक एक हजार (१०००) योजन विस्तृत, उतने (१००० यो.) मात्र ऊंचे और अढाई सौ (२५०) योजन प्रमाण अवगाहसे संयुक्त हैं ।। २ ।। वे रतिकर पर्वत नियमसे प्रत्येक वापीके चार चार कोनोंमें चार हैं, ऐसा लोकविनिश्चय ग्रन्थके कर्ता बतलाते हैं।।३।।
नन्दीश्वर द्वीपकी विदिशाओंमें अन्य चार अंजनपर्वत हैं। वे भी रतिकर पर्वतोंके समान हैं, ऐसा सर्वज्ञका दर्शन है ।। ५० ।
उन सब पर्वतोंके ऊपर बावन जिनालय हैं जो प्रमाणमें भद्रसाल वनमें स्थित जिनाल के समान हैं। मैं सदा उन जिनालयोंकी भक्तिपूर्वक स्तुति करता हूं ॥ ५१॥ प्रतिवर्ष यहां आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन मासमें [शुक्ल पक्षमें] अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा तक अर्थात् अष्टाह्निक पर्व में अन्य देवोंके साथ सौधर्म, चमर, ईशान और वैरोचन ये चार इन्द्र हर्षित होकर क्रमसे पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें महाविभूतिके साथ भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणक्रमसे दो दो पहर तक जिनेन्द्रोंकी महामह पूजाको करते हैं ॥ ५२-५४।।
नन्दीश्वर द्वीपके आगे अरुण नामका द्वीप कहा गया है, उसको वेष्टित करके अरुणवर
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