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-४.४६] चतुर्थो विभागः
। ७७ तस्य मध्येऽऽजनाः शैलाश्चत्वारो दिक्चतुष्टये । सहस्राणामशीतिश्च चत्वारि च नगोच्छितिः ।।३७
। ८४००० । उच्छ्येण समो व्यासो मूले मध्ये च मूर्धनि । सहस्रमवगादश्च वज्रमूला प्रकीर्तिताः॥ ३८ पूर्वाञ्जनगिरेदिक्षु नन्दा नन्दवतीति च । नन्दोत्तरा नन्दिषेणा इति प्राच्यादिवापिकाः ।। ३९ एकैकनियुतव्यासा मुखमध्यान्तमानतः । नानारत्नजटा वाप्यो बज्रभूमिप्रतिष्ठिता: ।। ४०
।१०००००। अरजा विरजा चान्या अशोका वीतशोकका। दक्षिणस्याञ्जनस्याद्रेः पूर्वाद्याशाचतुष्टये ।। ४१ विजया वैजयन्ती च जयन्त्यन्यापराजिता । अपरस्याञ्जनस्याद्रेः पूर्वाद्याशाचतुष्टये ॥ ४२ रम्या च रमणीया च सुप्रभा चापरा भवेत् । उत्तरा सर्वतोभद्रा इत्युत्तरगिरिश्रिताः ।। ४३ कमलकह्लारकुमुदै: सुरभीकृतदिक्तट:२ । युक्ताः सर्वाश्च वाप्यस्ता मुक्ता जलचरैः सदा ॥ ४४ अशोकं सप्तपर्ण च चम्पक चूतमेव च । चतुदिशं तु वापीनां प्रतितीरं वनान्यपि ।। ४५ व्यस्तानि नियुतार्ध च नियुतं चायतानि तु । सर्वाण्येव वनान्याहुर्वेदिकान्तानि सर्वतः ।। ४६
५०००० । १००००० ।
उस द्वीपके मध्यमें चारों दिशाओंमें चार अंजन पर्वत हैं । इन पर्वतोंकी ऊंचाई चौरासी हजार (८४०००) योजन प्रमाण है ॥ ३७॥ इन पर्वतोंका विस्तार मूल, मध्य और शिखरपर भी उंचाईके बराबर (८४०००) तथा अवगाह एक हजार (१०००) योजन मात्र है। इनका मूल भाग वज्रमय कहा गया है ।। ३८ ।।।
__पूर्वदिशागत अंजनगिरिकी पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिपेणा (नन्दिघोषा) नामकी चार वापिकायें हैं ॥ ३९ ॥ इन वापियोंका विस्तार मूलमें, मध्यमें और अन्त में एक लाख (१०००००) योजन प्रमाण है। उक्त वापियाँ अनेक रत्नोंसे खचित और वज्रमय भूमिपर प्रतिष्ठित हैं ॥ ४० ॥ दक्षिण अंजनपर्वतकी पूर्वादि दिशाओंमें अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका नामकी चार वापिकायें स्थित हैं ।। ४१ ॥ पश्चिम अंजनपर्वतकी पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता नामकी चार वापिकायें स्थित हैं ।। ४२ ॥ उत्तर दिशागत अंजनपर्वतके आश्रित पूर्वादि क्रमसे रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नामकी चार वापिकायें हैं ।। ४३ ॥ दिङमण्डलको सुवासित करनेवाले कमल, कल्हार और कुमुद पुप्पोंसे युक्त वे सब वापिकायें सदा जलचर जीवोंसे रहित हैं ।। ४४ ।।
__ वापियोंके प्रत्येक किनारेपर चारों दिशाओं में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र ये चार वन स्थित हैं ॥४५॥ सब ही वन आधा लाख (५००००) योजन विस्तृत, लाख (१०००००) योजन आयत और अन्त में सब ओर वेदिकासे संयुक्त कहे जाते हैं ॥ ४६॥
१ आ प मध्यास्त । २ ब दिकटः ।
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