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________________ ७६७ लोकविभागः [४.२८पाण्ड[ण्ड]रः पुष्पदन्तश्च विमलो विमलप्रभः । 'सुप्रभस्य[श्च] घृतास्यस्य उत्तरश्च महाप्रभः ।।२८ कनक: कनकाभश्च पूर्णः पूर्णप्रभस्तथा । गन्धश्चान्यो महागन्धो नन्दी नन्दिप्रभस्तथा ॥ २९ भद्रश्चैव सुभद्रश्च अरुणश्चारुणप्रभः । सुगन्धः सर्वगन्धश्च अरणोदे तु सागरे ॥ ३० एवं द्वीपसमुद्राणां द्वौ द्वावधिपती स्मृतौ । दक्षिणः प्रथमोक्तोऽत्र द्वितीयश्चोत्तरापतिः ।। ३१ . चतुरशीतिश्च लक्षाणि त्रिषष्टिशतकोटयः३ । " नन्दीश्वरवरद्वीपविस्तारस्य प्रमाणकम् ॥ ३२ ।१६३८४०००००। कोटीनां त्रिशतं राप्तविंशति पञ्चषष्टिकम् । लक्षाणां च प्रमामन्तःसूच्यास्तस्य विदुर्बुधाः ॥ ३३ त्रीणि पञ्च च सप्तव द्वे शून्यं द्वे च रूपकम् । षट् त्रीणि गगनं चैकमन्तःपरिधिरुच्यते ।। ३४ ।१०३६१२०२७५३ । कोटीनां पञ्चपञ्चाशच्छतषट्कं त्रिकाधिकम् । त्रिशल्लक्षाणि तद्वीपबाह्यसूचीप्रमा भवेत् ।। । ६५५३३००००० । शून्यं नबैकं चत्वारि पञ्च त्रीणि त्रिकं द्विकम् । सप्त शून्यं द्विकं तस्य परिधिर्बाह्य उच्यते ॥ ३६ । २०७२३३५४१९० । और पुष्पदन्त, विमल और विमलप्रभ, घृतद्वीपके दक्षिणमें सुप्रभ और उत्तरमें महाप्रभ, आगे कनक और कनकाभ, पूर्ण और पूर्णप्रभ, गन्ध और महागन्ध, नन्दी और नन्दिप्रभ, भद्र और सुभद्र तथा अरुण और अरुणप्रभ ; [ये दो दो देव कमसे क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, इक्षुरस (क्षौद्रवर) द्वीप, इक्षुरस (क्षौद्रवर) समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप, नन्दीश्वर समुद्र और अरुण द्वीप; इन द्वीप-समुद्रोंके अधिपति हैं । ] सुगन्ध और सर्वगन्ध नामके दो व्यन्तर देव अरुणोद समुद्र के अधिपति हैं ।। २८-३० । इस प्रकार द्वीप-समुद्रोंके दो दो व्यन्तर देव अधिपति माने गये हैं। इनमें यहाँ प्रथम कहा गया देव दक्षिण दिशाका तथा दूसरा देव उत्तर दिशाका अधिपति है ॥ ३१ ॥ । - नन्दीश्वर द्वीपके विस्तारका प्रमाण एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख (१६३८४०००००) योजन है ।। ३२ ।। विद्वान् गणधर आदि उसकी अभ्यन्तर सूचीका प्रमाण तीन सौ सत्ताईस करोड़ पैंसठ लाख योजन बतलाते हैं -- १६३८४०००००४२-३००००० = ३२७६५००००० ॥ ३३ ॥ उसकी अभ्यन्तर परिधि अंकक्रमसे तीन, पांच, सात, दो, शून्य, दो, एक, छह, तीन, शून्य और एक (१०३६१२०२७५३) अर्थात् एक हजार छत्तीस करोड़ बारह लाख दो हजार सात सौ तिरेपन योजन प्रमाण कही गई है ।। ३४ ॥ उस द्वीपकी वाह्य सूचीका प्रमाण छह सौ पचपन करोड़ तेतीस लाख योजन है - १६३८४०००००x४ - ३०००००= ६५५३ ॥ ३५ ॥ उसकी बाह्य परिधि अंकक्रमसे शून्य, नौ, एक, चार, पांच, तीन, तीन, दो, सात, शून्य और दो (२०७२३३५४१९०) इतने योजन प्रमाण कही जाती है ।। ३६ ।। १ आ प 'सुप्रभस्य[श्च]घृता-' इत्याधुत्तरार्धभागो नास्ति । २ आ प गन्धा । ३ आ ५ कोदयः । ४ ब उत्तरार्धभागोऽयं तत्र नास्ति । ५ आ प 'शत्शतषटकं । ६ आ पत्रिकादिकम् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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