SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४.२७] चतुर्थो विभागः [७५ द्वीपस्य प्रयमस्यास्य व्यन्तरोऽनादरः प्रभुः । सुस्थिरो लवणस्यापि प्रभासप्रियदर्शनौ ॥ २४ कालश्चैव महाकाल: कालोदे दक्षिणोतरौ । पद्मश्च पुण्डरीकश्च पुष्कराधिपती सुरौ ॥ २५ चक्षुष्मांश्च सुचक्षुश्च मानुषोत्तरपर्वते । द्वौ द्वावेवं सुरौ वेद्यौ द्वीपे तत्सागरेऽपि च ।। २६ श्रीप्रभश्रीधरौ देवौ वरुणो वरुणप्रभः । मध्यश्च मध्यमश्चोभौ वारुणीवरसागरे ।। २७ अथवा समुद्रका विस्तार एक लाख योजनसे अधिक होता गया है (देखिये पीछे श्लोक १६)। उदाहरणके लिये यदि हम कल्पना करें कि अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रका विस्तार ३२ लाख योजन है तो फिर समस्त द्वीप-समुद्रोंका विस्तार निम्न प्रकार होगा - ५०००० (अर्ध जंबूद्वीप) + २ लाख + ४ लाख + ८ लाख + १६ लाख + ३२ लाख यो. = ६२५०००० यो. । यह मेरुके मध्य भागसे लेकर एक ओरके समस्त मध्य लोकका कल्पित अर्ध राजु प्रमाण विस्तार हुआ। अब यदि हम इसका अर्ध भाग करते हैं तो वह ६२५००००=३१२५००० यो. (राजुका दूसरा अर्ध भाग) होता है । अब चूंकि स्वयम्भूरमण समुद्रसे पूर्व के सब द्वीप-समुद्रोंका उक्त कल्पित विस्तार ५०००० + २ लाख +४ लाख +८ लाख +१६ लाख =३०५०००० यो. ही है, अत एव यह राजुका दूजरा अर्ध भाग स्वयम्भूरमण समुद्र के पूर्ववर्ती स्वयम्भूरमण द्वीपमें नहीं पड़ता है, किन्तु वह स्वयम्भूरमण समुद्रमें उसकी अभ्यन्तर वेदिकासे ३१२५०००३०५०००० =७५००० यो. आगे जाकर पड़ता है। अब उसको भी आधा करनेपर वह ३ १२५०० == १५६२५०० यो. (राजुका तृतीय अर्ध भाग) होता है । सो वह स्वयम्भूरमण द्वीपमें उसकी अभ्यन्तर वेदिकासे आगे १५६२५००-(५०००० + २ लाख + ४ लाख + ८ लाख) = ११२५०० = (७५०००+७५९००) इतने योजन आगे जाकर पड़ता है । अब इसका भी अर्ध भाग करनेपर वह १५६२.५०० =७८१२५० यो. (राजुका चतुर्थ अर्ध भाग) होता है । सो वह स्वयम्भूरमण द्वीपके पूर्ववर्ती अहीन्द्रवर समुद्र के भीतर उसकी अभ्यन्तर वेदिकासे आगे ७८१२५० - (५०००० + २ लाख + ४ लाख) = १३१२५० = (७५००० + ७५२+ 1.00) इतने योजन जाकर पड़ता है। इसी क्रमसे आगेके क्रमको भी समझ लेना चाहिये। इस क्रमसे अहीन्द्रवर समुद्रके पूर्ववर्ती प्रत्येक द्वीप और समुद्र में क्रमसे उक्त अर्ध राजुका एक एक अर्धच्छेद पडता हुआ लवण समुद्र में जाकर दो अर्धच्छेद पड़ते हैं। यहाँ उदाहरणस्वरूप अर्ध राजु और उसके अर्ध अर्ध भागोंकी जो कल्पना की गई है तदनुसार यथार्थको ग्रहण करना चाहिये। इस प्रथम द्वीप तथा लवणसमुद्रका स्वामी क्रमसे अनादर नामका व्यन्तर देव और सुस्थिर (सुस्थित) देव ये दो व्यन्तर देव हैं। [धातकीखण्ड द्वीपके अधिपति] प्रभास और प्रियदर्शन नामके दो व्यन्तर देव हैं ।। २४ । दक्षिण व उत्तर भागमें स्थित काल और महाकाल नामक व्यन्तर देव कालोद समुद्रके तथा पद्म और पुण्डरीक नामक दो देव पुष्कर द्वीपके अधिपति हैं ।। २५ ॥ चक्षुष्मान् और सुचक्षु नामके दो व्यन्तर देव मानुषोत्तर पर्वतके अधिपति हैं। इस प्रकार दो दो देव आगेके द्वीप और समुद्रमें भी जानना चाहिये। श्रीप्रभ और श्रीधर नापके दो व्यन्तर देव पुष्करवर समुद्रके, वरुण और वरुणप्रभ नामके दो व्यन्तर देव वारुणीवर तथा मध्य और मध्यम नामके दो देव वारुणीवर समुद्र के अधिपति हैं ॥ २६-२७ ॥ पाण्डुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy