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लोकविभागः
[ ४.१९स्वद्विभागयुतामस्थात्सहस्राणां पञ्चसप्ततिम् । खण्डिता सा तटाद् गत्वा द्वीपस्यापरस्य च ।।१९
। ११२५०० । स्वद्वयंशपादसंयुक्तं पञ्चसप्ततिसहस्रकम् । पश्चिमाब्धेस्तटाद् गत्वा खण्डिता सा पुनः स्थिता ।।
। १३१२५० । अभ्यन्तरतटादेवमात्मार्धाङघ्रयष्टमादिभिः । युतां तावत्सहस्राणां गत्वास्थात् पञ्चसप्ततिम् ।।२१
।१४०६२५ । इत्यादि । सूच्यङगुलस्य संख्यातस्पयुक्छेदमानकाः । यावद् द्वीपार्णवा यन्ति ततोऽस्थात् सार्धलक्षकम् ।।२२
।१५००००। पतितौ लवणे च्छेदौ' द्वौ चैको भरतान्त्यके । निषधे चैकच्छेदो द्वौ छेदौ च कुरुष्वपि ।। २३
आगे पचत्तर हजार (७५०००)योजन जाकर स्थित हुआ है ।।१८।। उसका भी अर्ध भाग स्वयम्भूरमण द्वीपके अभ्यन्तर तट (वेदिका) से आगे अपने द्वितीय भागसे सहित पचत्तर हजार अर्थात् एक लाख साढ़े बारह हजार (७५०००-७५३११२५०० ) योजन जाकर स्थित हुआ है।।१९।। उसका अर्ध भाग पिछले समुद्र के अभ्यन्तर तटसे आगे अपने द्वितीय भाग और चतुर्थ भागसे सहित पचत्तर हजार अर्थात् एक लाख इकतीस हजार दो सौ पचास (७५००० + ७.५,००० ५५००० ==१३१२५०) योजन जाकर स्थित हुआ है ।। २० । इसी प्रकारसे उत्तरोत्तर अधित राजुका अर्ध भाग यथाक्रमसे पिछले द्वीप-समुद्रोंकी अभ्यन्तर वेदिकासे आगे अपने अर्ध (द्वितीय), पाद (चतुर्थ) और आठवें आदि भागोंसे सहित पचत्तर हजार (यथा -७५०००-७५.०० + ५५१०० -- ७५००=१४०६२५ इत्यादि) योजन जाकर स्थित हुआ है ।। २१ । इस प्रकार संख्यात अंकोंसे संयुक्त सूच्यंगुलके अर्धच्छेद प्रमाण द्वीप-समुद्रों तक उपर्युक्त क्रमसे राजुके अर्धच्छेद द्वीप-समुद्र में पड़ते जाते हैं। तत्पश्चात् लवणसमुद्र तक शेष सब द्वीप-समुद्रोंमें वे डेढ़ लाख (जैसे - ६४ लाख, ३२ लाख, १६ लाख और ८ लाख) के क्रमसे गिरते हैं ।। २२ ।। लवण समुद्र में दो अर्धच्छेद, भरतक्षेत्रके अन्त में एक, निषध पर्वतपर एक, और दो अर्धच्छेद कुरुक्षेत्रमें भी पड़े हैं (?) ॥ २३ ॥
विशेषार्थ- वृत्ताकार समस्त मध्यलोकका विस्तार एक राजु प्रमाण माना गया है । वह मेरु पर्वतके मध्य भागसे स्वयम्भूरमण समुद्र तक आधा राजु एक ओर तथा उसी मेरुके मध्य भागसे स्वयम्भूरमण समुद्र तक आधा राजु दूसरी ओर है। इस अर्ध राजुके यदि उत्तरोत्तर अर्धच्छेद किये जावें तो उनके पड़नेका क्रम इस प्रकार होगा - राजुको आधा करनेपर उसका वह अर्ध भाग मेरुके मध्य भागसे लेकर अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त में जाकर पड़ता है । फिर उसका (अर्ध राजुका ) आधा भाग इसी स्वयम्भूरमण समुद्रकी अभ्यन्तर वेदिकासे आगे ७५००० योजन जाकर इसी समुद्र के भीतर पड़ता है । इसका कारण यह है कि इस वृत्ताकार मध्य लोकके विस्तार में पिछले समस्त द्वीप-समुद्रोंके विस्तारकी अपेक्षा आगेके द्वीप
१ आ प लवणे छेदो। २ ब 'द्वौ'नास्ति । ३ प छेदी।।
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