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________________ -४.१८] चतुर्थो विभागः वारुणीलवणस्वादौ घृतक्षीररसावपि । असामान्यरसा एते कालान्त्यो केवलोदको ॥ १३ मधुमिश्रजलास्वादस्तृतीयः पुष्करोदकः । शेषा इक्षुरसास्वादा असंख्येया' महार्णवाः ॥ १४ उक्तं च त्रिलोकसारे [३१९]-- लवणं वारुणितियमिदि कालदुगंतिमसयंभुरमणमिदि। पत्तेयजलसुवादा अवसेसा होति उच्छरसा॥ लवणान्धौ२ च कालोदे स्वयंभूरमणोदधौ । जीवा जलचराः सन्ति न च शेषेषु वाधिषु ॥ १५ ३ व्यतीतद्वीपवाधिभ्यो विस्तारे चक्रवालके । एकेन नियुतेनैको द्वीपोऽब्धिर्वातिरिच्यते ॥ १६ मन्दरार्धाद् गता' रज्जुरर्धा प्राप्तान्त्यवारिधेः । अन्तं तदर्धमस्यान्तस्तथा द्वीपेऽर्णवेऽपरे ॥ १७ आद्याधितार्धरज्जुश्च स्वयंभूरमणोदधेः । तटात्परं सहस्राणां गत्वाऽस्थात्पञ्चसप्ततिम् ॥ १८ ।७५०००। वारुणीवर, लवणोद, घृतवर और क्षीरवर ये चार समुद्र स्वादमें असामान्य रस अर्थात् अपने अपने नामोंके - अनुसार रसवाले हैं। कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र ये दो समुद्र केवल जलके स्वादवाले हैं। तीसरा पुष्करोदक समुद्र मधुमिश्रित जलके स्वादसे संयुक्त, तथा शेष असंख्यात समुद्र इक्षुरसके समान स्वादवाले हैं ॥ १३-१४ ।। त्रिलोकसारमें भी कहा है - लवणसमुद्र और वारुणीत्रिक अर्थात् वारुणीवर, क्षीरवर और घृतवर ये तीन समुद्र प्रत्येकजलस्वाद अर्थात् अपने अपने नामके अनुसार स्वादवाले हैं। कालोदक और पुष्करवर ये दो तथा अन्तिम स्वयम्भूरमण ये तीन समुद्र सामान्य जलके स्वादसे संयुक्त हैं। शेष सब समुद्रोंका स्वाद इक्षुरसके समान है ॥ १॥ लवणसमुद्र, कालोदक और स्वयम्भूरमण समुद्र में जलचर जीव हैं। शेष समुद्रोंमें जलचर जीव नहीं हैं ॥ १५ ॥ मण्डलाकार विस्तारमें विगत द्वीप-समुद्रोंके विस्तारकी अपेक्षा आगेके द्वीप अथवा समुद्र का विस्तार एक लाख योजनसे अधिक होता है ॥ १६ ॥ उदाहरण-- जैसे जंबूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड और कालोदक समुद्र इन विगत द्वीप-समुद्रोंका विस्तार १५ लाख योजन प्रमाण (१+२+४+८=१५ लाख) है, अत एव आगेके पुष्कर द्वीपका विस्तार इससे एक लाख योजनसे अधिक होकर सोलह (१६) लाख योजन प्रमाण होगा। . मन्दर पर्वतके अर्ध (मध्य) भागसे गई हुई अर्ध राजु अन्तिम (स्वयम्भूरमण) समुद्रके अन्त भागको प्राप्त हुई है । उसका (अर्ध राजुका) आधा भाग इसी समुद्र के भीतर [ अभ्यन्तर तटसे ७५००० यो. आगे जाकर] प्राप्त होता है। यही क्रम पिछले द्वीप. और समुद्रमें समझना चाहिये ।।१७।। प्रथम वार अधित अर्ध राजुका आधा भाग स्वयम्भूरमण समुद्रके अभ्यन्तर तटसे १५ असंख्येयः। २ आप लवणान्दो। ३१ व्यतीत्य° । ४५ मन्दाङगता। लो.१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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