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________________ -३.५५] तृतीयो विभागः वृकास्या व्याघ्रवक्वाश्च तथा हिमवदग्रतः । ऋक्षास्याश्च शृगालास्याः स्थिताः शुङिगनगाग्रतः ।। द्वीपिकास्याश्च भृङगारमुखा रूप्यनगाग्रतः । बाह्यतोऽभ्यन्तरायाश्च जगत्या अन्तराश्रिताः ॥ ४९ दिगन्तरदिशाद्वीपाः सार्धपञ्चशतं तटात् । सौकरा पछतानीत्वा इतरे सार्धषट्छतम् ॥ ५० ५५० । ६०० । [६५०] दिग्गता द्विशतव्यासाः शतव्यासा विदिग्गताः। शेषाः पञ्चशतं व्यस्ता द्वीपाः कालोदके स्थिताः।।५१ वर्णाहारगृहायुभिः समा गत्या च लावणैः । द्वीपानामवगाहस्तु जलान्तः स्यात्सहस्रकम् ।। ५२ उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ [११-५४]कोसेक्कसमुत्तुंगा पलिदोवमआउगा समुद्दिट्ठा । आमलयपमाहारा च उत्थभत्तेण पारन्ति ।। ३ चतुर्विशतिरन्तस्थास्तावन्तश्च बहिःस्थिताः । एते तु लवणोदस्थैः सह षण्णवतिः स्मृताः ॥ ५३ तृतीयः पुष्करद्वीपः पुष्कराख्यद्रुमध्वजः२ । पृथुः शतसहस्राणि षोडशेति निदर्शितः ॥ ५४ ।१६०००००। चत्वारिंशच्च पञ्चापि नियुतानि प्रमाणतः । मानुषक्षेत्र विस्तारः सार्धद्वीपद्वयं च तत् ।। ५५ । ४५००००० । हिमवान् पर्वतके आगे वृकमुख और व्याघ्रमुख तथा शृंगी (शिखरी) पर्वतके आगे ऋक्ष (रीछ)मुख और शृगालमुख कुमानुष स्थित हैं ।। ४८ ॥ विजयाध पर्वतके आगे बाह्य और अभ्यन्तर जगतीके अन्तरालमें द्वीपिकमुख और भंगारमुख कुमानुष स्थित हैं ॥ ४९ ॥ दिशागत और अन्तरदिशागत द्वीप समुद्रतटसे पांच सौ पचास (५५०) योजन, सौकर द्वीप छह सौ (६००) योजन और इतर ( विदिशागत ) द्वीप साढ़े छह सौ ( ६५०) योजन जाकर स्थित हैं । ५० ।। कालोदक समुद्र में स्थित इन द्वीपोंमें दिशागत दो सौ (२००) योजन, विदिशागत सौ (१००) योजन और शेप द्वीप पांच सौ (५००) योजन विस्तृत हैं ।। ५१ ।। इन द्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुष वर्ण, आहार, गृह, आयु और गतिसे भी लवण समुद्र में स्थित द्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुषोंके समान हैं । उन द्वीपोंका अवगाह जलके भीतर एक हजार योजन मात्र है ।। ५२ ।। जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिमें कहा भी है - अन्तरद्वीपोंमें रहनेवाले वे कुमानुष एक कोस ऊंचे, पल्योपम प्रमाण आयुवाले, तथा आंवलेके बराबर आहारके ग्राहक होकर चतुर्थभक्त (एक दिनके अन्तर)से भोजन करते हैं ॥३॥ कालोदक समुद्र के भीतर चौबीस (२४) द्वीप अभ्यन्तर भागमें स्थित हैं तथा उतने (२४) ही उसके बाह्य भागमें भी स्थित हैं। लवणोद समुद्र में स्थित अन्तरद्वीपोंके साथ ये सब द्वीप छयानबै (९६) माने गये हैं ।। ५३ ॥ पुष्कर नामक वृक्षसे चिह्नित तीसरा पुष्करद्वीप है । इसका विस्तार सोलह लाख (१६०००००) योजन प्रमाण बतलाया गया है ।। ५४॥ मनुष्यलोकका विस्तार चालीस और पांच अर्थात् पैंतालीस लाख (४५०००००) योजन प्रमाण है। वह मनुष्यलोक अढाई द्वीपस्वरूप १ मा प षण्णवति । २ आप ध्रुमध्वजः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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