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________________ ६६] लोकविभागः [३.३८भद्रसालवनं भौ[भूमौ मेखलायां च नन्दनम् । ततः सौमनसं चैव शिखरे पाण्डुकं वनम् ।। ३८ शिला' पुष्करिणी कूटं भवनान्यपि चूलिका । समानि सर्वमेरूणां चैत्यानीति विनिश्चितम् ।। ३९ एक षण्णवकं शून्यमेकमेकं कृतिद्व[]योः । स्थानकः परिधिर्बाह्यो भवेद्धातकिषण्डके ।। ४० । ४११०९६१। धातकोखण्डमावृत्य स्थितः कालोदकार्णवः । पुरतः पुष्करद्वीपस्तस्मात्तत्परिवारकः ।। ४१ पञ्च शून्यं च षट् शून्यं सप्तकं नव च क्रमात् । कालोदकसमुद्रस्य बाह्यः परिधिरुच्यते ।। ४२ ।९१७०६०५ । कालोदकसमुद्राद्याः समाग्रच्छिन्नतीरकाः । सहस्रमवगाढाश्च वेदिकाद्वयसंवृताः ॥ ४३ कालोदकसमुद्रस्य पूर्वे झषमुखा नराः । दक्षिणे हयकर्णाः स्युः पश्चिमे पक्षिवक्त्रकाः ॥ ४४ उत्तरे गजकर्णाश्च क्रोडकर्णा विदिग्गताः । इन्द्रेशानान्तराद्यासु अष्टास्वन्तरदिक्षु च ।। ४५ गवोष्ट्रकर्णा मार्जारबिडालास्या भवन्ति च । कर्णप्रावरणाश्छागमार्जारोतुमुखाः क्रमात् ।। ४६ विजयार्धाग्रतः शिशुमारास्या मकरास्यकाः । कालोदकसमुद्रस्य पूर्वापरयोः स्थिताः ।। ४७ उपर्युक्त चार वनोंमें भद्रशाल वन भूमिपर, नन्दन तथा सौमनस वन मेखलाके ऊपर, तथा पाण्डुक वन शिखरपर अवस्थित है ।। ३८ ।। सब मेरुओंको शिलायें, वापिकायें, कूट, भवन, चूलिका और जिनभवन ; ये सब विस्तारादिमें निश्चयसे समान हैं ।। ३९ ।। धातकीखण्ड द्वीपकी बाह्य परिधि एक, छह, नौ, शून्य, एक, एक तथा दोका वर्ग (४) इन अंकोंके अनुसार इकतालीस लाख दस हजार नौ सौ इकसठ (४११०९६१) योजन प्रमाण है ॥ ४० ॥ धातकीखण्ड द्वीपको घेरकर कालोदक समुद्र स्थित है। उसके आगे उसको वेष्टित करनेवाला पुष्करद्वीप अवस्थित है ॥ ४१ ॥ कालोदक समुद्रकी बाह्य परिधिका प्रमाण अंकक्रमसे पांच, शून्य, छह, शून्य, सात, एक और नौ (९१७०६०५) अर्थात् इक्यानबै लाख सत्तर हजार छह सौ पांच योजन प्रमाण कहा जाता है ।। ४२ ॥ कालोदक समुद्रको आदि लेकर आगेके सब समुद्र टांकीसे उकेरे गयेके समान तीरवाले, हजार योजन गहरे, और दो वेदिकाओंसे वेष्टित हैं ॥ ४३ ।। कालोदक समुद्र के पूर्व में रहनेवाले कुमानुष मत्स्यमुख, दक्षिणमें अश्वकर्ण, पश्चिममें पक्षिमुख और उत्तरमें गजकर्ण हैं। विदिशाओंमें स्थित वे कुमानुष शूकरकर्ण हैं। पूर्व और ईशानके अन्तर्भाग आदि रूप आठ अन्तर्दिशाओंमें स्थित उक्त कुमानुष आकारमें क्रमश: इस प्रकार हैं -- गोकर्ण, उष्ट्रकर्ण, मार्जारमुख, बिडाल (मार्जार) मुख, कर्णप्रावरण, छाग (बकरा) मुख, मार्जारमुख और मार्जारमुख ॥४४-४६।। कालोदक समुद्रके पूर्वापर भागोंमें स्थित विजयार्ध पर्वतके आगे स्थित अन्तरद्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुष शिशुमारमुख व मकरमुख हैं ।। ४७ ।। १ब शिलाः । २ । आ पांगतः । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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