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________________ -३.३७ ] तृतीयो विभाग : [६५ सहस्राणि खलु त्रिंशत्सहस्रार्धा[]ते ' पुनः । परिधिः सप्तषष्ठिश्च मेरोर्नन्दनबाहिरः ।। २९ अष्टावेव सहस्राणि पञ्चाशत् त्रिशतं पुनः । विष्कम्भो नन्दनस्यान्तो मेरोविद्भिरुदाहृतः ॥ ३० षड्विंशतिसहस्राणि पञ्चानं च चतुःशतम् । नन्दनाभ्यन्तरो मेरोः परिधिः परिकीर्तितः ।। ३१ ततो गत्वा सहस्राणां पञ्चपञ्चाशतं पुनः । चाधं पञ्चशतं व्यासं वनं सौमनसं भवेत् ॥ ३२ सौमनसे गिरासस्त्रिशताष्टशतं२ बहिः । परिधिदिशाभ्यस्तसहस्र साधिकषोडशम् ॥३३ तस्याभ्यन्तरविष्कम्भः शून्यं शून्याष्टकद्विकम् । संख्याया परिधिश्चान्तश्चतुःपञ्चाष्टकाष्टकम्।। ३४ २८०० । ८८५४ । ततोऽष्टाविंशतिं गत्वा सहस्राणां च षट्कक-५ । हीनपञ्चशतव्यासं पाण्डुकाख्यं वनं भवेत् ॥३५ २८००० । ४९४ । शतं त्रीणि सहस्राणि द्विषष्ट्येकं च गोरुतम् । साधिकं परिधिश्चाग्ने मेरूणामिति कीर्तितः ॥३६ समरुन्द्रा नन्दनादूर्ध्वमयुतं क्षुल्लकमेरवः । ततः परं क्रमाद्धानिरेवं सौमनसादपि ॥ ३७ योजन प्रमाण है ।। २८ ।। नन्दन वनके समीपमें इन मेरुओंकी बाह्य परिधिका प्रमाण सहस्रार्ध अर्थात् पांच सौसे कम तीस हजार और सड़सठ (२९५६७) योजन है ।। २९ ।। विद्वानोंके द्वारा नन्दन वनके भीतर (नन्दन वनसे रहित) मेरुका विस्तार आठ हजार तीन सौ पचास (८३५०) योजन प्रमाण कहा गया है ९३५० - (५०० + ५००) = ८३५० यो. ।।३० ।। नन्दन वनके भीतर मेरुकी अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण छब्बीस हजार चार सौ पांच (२६४०५) योजन निर्दिष्ट किया गया है ।। ३१ ।। नन्दन वनसे पचपन हजार पांच सौ (५५५००) योजन ऊपर जाकर पांच सौ (५००) योजन विस्तृत सौमनस वन स्थित है ।। ३२ ॥ सौमनस वनके समीपमें मेरु पर्वतका बाह्य विस्तार अड़तीस सौ ( ३८०० ) योजन और उसकी परिधि बारह हजार सोलह (१२०१६) योजनसे कुछ अधिक है ॥ ३३ ।। उसका अभ्यन्तर विस्तार अंकक्रमसे शून्य, शून्य, आठ और दो अर्थात् दो हजार आठ सौ (२८००)योजन तथा उसकी अभ्यन्तर परिधि चार, पांच, आठ और आठ इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या (८८५४) प्राप्त हो उतने योजन प्रमाण है ।।३४।। सौमनस वनसे अट्ठाईस हजार (२८०००) योजन ऊपर जाकर छह (चलिकाका अर्ध विस्तार) से कम पांच सौ (४९४) योजन विस्तृत पाण्डुक वन है ॥ ३५ ॥ शिखरपर मेरुओंकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन और एक कोस (३१६२३यो.) से कुछ अधिक कही गई है ।। ३६ ॥ क्षुद्र मेरु नन्दन वनसे ऊपर दस हजार (१००००) योजन तक समान विस्तारवाले तथा इसके ऊपर क्रमशः हीन विस्तारवाले हैं। विस्तारका यह क्रम सौमनस वनके ऊपर भी जानना चाहिये ॥ ३७ ।। १ ब सहस्रार्धधृते । २ ब त्रिसहस्राष्टशतं । ३ आ प परिधिद्वादशा । ४ प षोडशः । ५ आ प षट्ककं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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