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________________ ६४] लोकविभागः [३.२४एकत्रिंशत्' सहस्राणि षट्छतं विंशतिद्विकम् । साधिकं च त्रिगव्यूति मूले परिधिरुच्यते ॥ २४ ।३१६२२ को ३। विष्कम्भा नवसहस्राणि चतुःशतयुतानि हि । महीतलेषु मेरूणामुक्ताः सर्वज्ञपुंगवः ॥२५ त्रिंशदेव सहस्राणि त्रिशतोनानि मानतः । पञ्चविंशतियुक्तानि परिधिर्धरणोतले ॥ २६ ।२९६२५ [ २९७२५]। सहस्राधं योजनानि भुवो गत्वा च तिष्ठति । शतपञ्चक विस्तार नन्दनं वनमेव च ॥ २७ ।५००। सहस्राणि नव त्रीणि शतान्यर्धशतं तथा । सनन्दनस्य विष्कम्भो मेरोभवति संख्यया ।। २८ विशेषार्थ - क्षुद्र मेरुओंके तलविस्तारके विषयमें दो मत हैं - (१) कितने ही आचार्योंका अभिमत है कि चारों क्षुद्र मेरुओंका विस्तार तल भागमें १०००० यो., पृथिवीपृष्ठपर ९४०० यो. और ऊपर शिखरपर १००० यो. मात्र है । उनका पृथिवी में अवगाह १००० यो. और ऊपर ऊंचाई ८४००० यो. प्रमाण है। इस मतके अनुसार तलभागसे लेकर पृथिवीपृष्ठ तक एक एक योजन जानेपर भागोंकी विस्तारमें हानि होती गई है । यथा - (१००००९४००) १००० = 4 यो.। इसके ऊपर शिखर तक उक्त विस्तारमें एक एक योजन जानेपर मात्र यो. की हानि हुई है। वह इस प्रकारसे - (९४०० - १०००) : ८४००० = १. यो.। (२) दूसरे आचार्योका अभिमत है कि इन क्षुद्र मेरुओंका विस्तार पृथिवीतल में ९५०० यो. है । इसके ऊपर वह क्रमशः हीन होकर शिखरपर मात्र १००० यो. ही रह गया है । इस मतके अनुसार पृथिवीतलसे ऊपर एक एक योजन जाकर सर्वत्र समान रूपसे उसके विस्तारमें .यो. की हानि होती गई है। यथा- (९५००-१०००) (१०००+८४०००) = यो. . - इन मेरु पर्वतोंकी परिधिका प्रमाण मूलमें इकतीस हजार छह सौ बाईस योजन और तीन कोससे कुछ अधिक कहा जाता है -- V१००००२ X १० = ३१६२२३ योजनसे कुछ अधिक ॥ २४ ॥ सर्वज्ञ देवों के द्वारा उन मेरु पर्वतोंका विस्तार पृथिवीतलपर नौ हजार चार सौ (९४००) योजन प्रमाण कहा गया है ।।२५।। पृथिवीतलके ऊपर इन मेरु पर्वतोंकी परिधि तीन सौसे रहित और पच्चीससे सहित तीस हजार अर्थात् उनतीस हजार सात सौ पच्चीस योजन प्रमाण है ।। २६ ।। - V९४००२४१०= २९७२५ यो । अधिकसे पृथिवीसे इन मेरु पर्वतोंके ऊपर हजारके आधे अर्थात् पांच सौ (५००) योजन जाकर पांच सौ (५००) योजन विस्तृत नन्दन वन स्थित है ।। २७ ।। नन्दन वनसे सहित इन मेरुओंका विस्तार नौ हजार तीन सौ और सौके आधे अर्थात् पचास [ ९४००- ४५००)=९३५० ] १५ त्रिंशत । २ प द्विकम् । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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