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-३.२३] तृतीयो विभागः
[ ६३ विजयाश्च चैत्यानि वृषभा नाभिपर्वताः । चित्रकूटादयश्चैते तदा काञ्चननामकाः ।। १७ दिशागजेन्द्रकूटानि वक्षारा वेदिकादयः । उच्छ्यव्यासगाधस्ते समा द्वीपत्रये मताः ॥१८
उक्तं च द्वयम् [ति. प. ४-२५४७, २७९१]मोत्तूणं मेरुगिरि सव्वणगा कुंडपहुदि दीवदुगे । अवगाढवासपहुदी केई इच्छंति' सारिच्छा ॥१ मुक्का मेरुगिरिदं कुलगिरिपहुदीणि दीवतिदयम्मि । वित्थारुच्छेहसमा केई एवं पर वेंति ।।२ अर्धयोजनमुद्विद्धा व्यस्ताः पञ्चधनुःशतम् । सर्वेषामपि कुण्डानां वेदिका रत्नतोरणाः ।। १९ अशीतिश्च सहस्राणि चत्वारि च समुच्छ्यः । चतुर्गामपि मेरूणां परयोपयोस्तथा ॥२०
।८४०००। सहस्रमवगाढाश्च मेदिनों सर्वमेरवः । दशैव स्युः सहस्राणि चतुर्णां मूलपार्थवम् ।। २१
१०००।१००००। एकयोजनगते मूलाद् व्यासः क्षुल्लकमेरवः । हीयन्ते षड्दशांशानां भूम्याश्च दशमांशकम् ।। २२
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केचित् क्षुल्लकमेरूणामिच्छन्ति तलरुन्द्रकम् । पञ्चनति शतानां च मूलाद्धानिर्दशांशकम् ॥ २३
९५०० ।। wrrrrrrrrrrrraman
विजयार्ध, चैत्य वृक्ष, वृषभ पर्वत, नाभि पर्वत, चित्रकूटादिक (यमक पर्वत), कांचन नामक पर्वत, दिग्गजेन्द्र कूट, वक्षार और वेदिका आदि; ये सब ऊंचाई, विस्तार तथा अवगाहकी अपेक्षा तीन द्वीपोंमें समान माने गये हैं ॥ १७-१८ ।। इस विषय में दो गाथायें भी कही गई हैं
मेरु पर्वतको छोड़कर शेष सब पर्वत और कुण्ड आदि अवगाह एवं विस्तार आदिकी अपेक्षा दोनों (जंबू और धातकीखण्ड) द्वीपों में समान हैं, ऐसा कितने ही आचार्य स्वीकार करते हैं ॥ १॥ मेरु पर्वतको छोड़कर शेष कुलपर्वत आदि तीन (जंबू, धातकीखण्ड और पुष्करार्ध) द्वीपोंमें विस्तार व ऊंचाईकी अपेक्षा समान हैं, ऐसा कितने ही आचार्य प्ररूपण करते हैं ॥ २॥
___ सब ही कुण्डोंके आध योजन ऊंची और पांच सौ (५००) धनुष प्रमाण विस्तृत ऐसी रत्नमय तोरणोंसे सहित वेदिकायें होती हैं ।। १९ ॥
· आगोके दो द्वीपों (धातकीखण्ड और पुष्करार्ध) में चारों ही मेरु पर्वतोंकी ऊंचाई अस्सी और चार अर्थात् चौरासी हजार (८४०००) योजन प्रमाण है ।।२०।। सब मेरु पर्वत पृथिवीमें एक हजार (१०००) योजन गहरे हैं । मूल भागमें चार मेरु पर्वतोंका विस्तार दस ही हजार (१००००) योजन प्रमाण है॥२१॥क्षुद्र मेरु मूल भागसे एक योजन ऊपर जाकर विस्तारमें छह दस भागों (f.) से हीन तथा पृथिवीसे एक योजन ऊपर जाकर दसवें भाग () से हीन होते गये हैं ।। २२ ।। क्षुद्र मेरुओंका तलविस्तार पंचानबै सौ (९५००) योजन प्रमाण होकर उसमें मूलकी अपेक्षा दसवें भाग (०)की हानि हुई है, ऐसा कुछ आचार्य स्वीकार करते हैं ॥ २३ ॥
१ आ प केईच्छंति । २ ब कुलपहुदीणि ३ ति प 'रुच्छेहसमो।
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