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________________ ६२] लोकविभागः [ ३.१२ भरतादिभुवामाद्यं रुन्द्रमपनीय बायके । चतुर्लक्षैन्हते हानिवृद्धी ईप्सितदेश के ' ॥ १२ गिरयोऽर्धतृतीयस्था द्रुमवक्षारवेदिकाः । अवगाढा विना मेरुं स्वोच्चयस्य चतुर्थकम् ।। १३ विस्तृतानि हि कुण्डानि स्वावगाहं तु षड्गुणम् । हृदनद्योऽवगाहाच्च पञ्चाशद्गुणविस्तृताः ॥ १४ ६०।१२०।२४० उद्गतं स्वावगाहं तु चैत्यं सार्धशताहतम् । जम्ब्वातुल्याः समाख्याता दशाप्यत्र महाद्रुमाः ।। १५ सर. कुण्डमहानद्यस्तथा पद्म हदा अपि । अवगाहैः समाः पूर्वव्यसिद्विद्विगुणाः परे ।। १६ ~~ अ. प. १४०२२९६१, म. प. २६६७२०७३७, बा. प. ३९३२१९८१ । अब यहां भरतादि क्षेत्रोंके विस्तारप्रमाणकी शलाकायें इस प्रकार हैं-- भरत १ X हैमवत ४ + हरिवर्ष १६ + विदेह ६४ + रम्यक १६ + हैरण्यकवत ४ + ऐरावत १ = १०६ ; यह एक ओरकी शलाओंका प्रमाण हुआ । इसी क्रमसे दूसरी ओरकी भी इतनी ही शलाकाओं को ग्रहण करके पूर्व शलाकाओं - में मिला देनेपर सब शलाकायें १०६ X २ २१२ होती हैं । अब विवक्षित क्षेत्रके विस्तारको लाने के लिये धातकीखण्डकी पर्वतरुद्ध क्षेत्र से रहित विवक्षित (अभ्यन्तर आदि) परिधि में २१२ का भाग देकर लब्धको अभीष्ट क्षेत्रकी शलाकाओंसे गुणित कर देनेपर विवक्षित क्षेत्रका विस्तार | आ जाता है। जैसे- १४०२२९६१४ × १ = ६६१४३३३ यो. ; भरतका अभ्यन्तर विस्तार | २१२ २६६७२०७१९ २१२ २१२ - x १ = १२५८१ र यो.; भरतका मध्य विस्तार । ३९३२१११५. ' x १ १८५४७३५५ यो. ; भरतका बाह्य विस्तार । हैमवत २६४५८३,५०३२४३, ७४१९०३३३ हरि १०५८३३,२०१२९८३३, २९६७६३३ । विदेह ४२३३३४३१२, ८०५१९४१३, ११८७०५४२ई । १८४ भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्य विस्तारमेंसे अभ्यन्तर विस्तारको कम करके शेषमें चार लाखका भाग देनेपर इच्छित स्थानमें हानि-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है ।। १२ ।। अढ़ाई द्वीपमें मेरु पर्वतको छोड़कर शेष जो पर्वत, वृक्ष, वक्षार और वेदिकायें स्थित हैं उनका अवगाढ अपनी ऊंचाईके चतुर्थ भाग ( 7 ) प्रमाण है ।। १३ ।। कुण्डों का विस्तार अपने अवगाहसे छह गुणा ( जैसे- १० x ६ = ६०, २० x ६ तथा द्रह और नदियों का विस्तार अपने अवगाहसे पचासगुणा है ।। १४ ।। चैत्य वृक्षकी ऊंचाई अपने अवगाहसे डेढ़ सौगुणी होती है । अढ़ाई द्वीपों में स्थित दस ही महावृक्ष जंबूवृक्ष के समान कहे गये हैं ।। १५ ।। तालाब, कुण्ड, महानदियां तथा पद्महृद भी; ये अवगाहकी अपेक्षा पूर्व अर्थात् जंबूद्वीपस्थ तालाब आदिके समान हैं । परन्तु विस्तारमें वे जंबूद्वीप तालाब आदिसे दूने दूने हैं ।। १६ ।। १ [हानिर्वृद्धिरीप्सित ] २ प तृतीयस्या । Jain Education International = For Private & Personal Use Only १२०, ४० x ६ २४० ) www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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