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________________ तृतीयो विभाग: [ ६१ आदिमध्यान्तपरिधिष्वद्विरुद्धक्षित पुनः । शोधयित्वावशेषश्च सर्वभूव्यासमेलनम् ॥ ७ अभ्यन्तरपरिधौ पर्वत र हितक्षेत्रं १४०२२९७ । मध्यम २६६७२०८ । बाह्य ३९३२११९ । भरताभ्यन्तरविष्कम्भश्चतुरेकं षट्कबट्ककम् । योजनानां नवल चेकमंशा द्वयेकद्विकस्य' च ॥ ८ ६६१४ । १२३ । -३.११] एकमष्टौ च पञ्च द्वे चेकमङ्कक्रमेण च । षट्त्रिंशद्भागका मध्यो विष्कम्भो भरतस्य च ।। ९ सप्तद्विकृति पञ्चाष्टावेकम क्रमेण च । पञ्चपञ्चैक के भागा बाह्यविष्कम्भ इष्यते ॥ १० त्रिस्थान भरतव्यासाद् वृद्धिर्हमवतादिषु । चतुर्गुगा विदेहान्तं तो हानिरनुक्रमात् ॥ ११ है २६४५८ [ २१२ ] ५०३२४[ ३३ ] ७४१९० [१३] ह १०५८३३ [ ३६ ]२०१२९८[३३] २९६७६३[ ३६ ] वि ४२३३३४ [३३] ८०५१९४ [२३] ११८७०५४[ ३६६] यो. विस्तारवाले २ इष्वाकार पर्वत भी अवस्थित हैं, इसीलिये उपर्युक्त राशिको २ से गुणित करके उसमें २००० योजनको मिला देनेपर उक्त पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त हो जाता है - ( ८८४२११६ X २ ) + (१००० × २ ) = १७८८४२१२ यो । इसमें यहां पर की विपक्षा नहीं की गई है । धातकीखण्ड द्वीपको आदि, मध्य और बाह्य परिधियों मेंसे पर्वतरुद्ध क्षेत्रको कम कर देनेपर शेष सब क्षेत्रोंका सम्मिलित विस्तार होता है ।। ७ ।। उसकी अभ्यन्तर परिधि में पर्वतरहित क्षेत्र १४०२२९७ यो, मध्यम परिधिमें २६६३२०८ यो. और बाह्य परिधि में ३९३२११९ यों. ( यहां यह पूर्णसंख्या को एक अंक मानकर निर्दिष्ट की गई है ।) भरत क्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार अंक क्रमसे चार, एक, छह और छह अर्थात् छह हजार छह सौ चौदह योजन और एक योजनके दो सौ बारह भागों में से एक सौ उनतीस भाग प्रमाण (६६१४३३३ यो. ) है ॥ ८ ॥ भरतका मध्य विस्तार अंकक्रमसे एक, आठ, पांच, दो और एक अर्थात् बारह हजार पांच सौ इक्यासी योजन और योजनके दो सौ बारह भागों में से छत्तीस भाग प्रमाण ( १२५८१३१२ यो ) है ।। ९ ।। भरत क्षेत्रका बाह्य विस्तार अंककमसे सात, दोका वर्ग अर्थात् चार, पांच, आठ और एक अर्थात् अठारह हजार पांच सौ सैंतालीस योजन और एक योजनके दो सौ बारह भागों में से एक सौ पचवन भाग प्रमाण ( १८५४७३ यो . ) है ।। १० ।। भरत क्षेत्रके उपर्युक्त तीन प्रकार विस्तारकी अपेक्षा हैमवत आदिक क्षेत्रोंके विस्तार में विदेह क्षेत्र तक चौगुणी वृद्धि हुई है, आगे उसी क्रमसे हानि होती गई है ॥ ११ ॥ विशेषार्थ - धातकीखण्ड द्वीपको अभ्यन्तर परिधि १५८११३९, मध्यम परिधि २८४६०५०, और बाह्य परिधि ४११०९६१ योजन प्रमाण है । इनमें से पर्वतरुद्ध क्षेत्र ( १७८८४२१ यो. ) को घटा देनेपर क्रमशः उन तीन परिधियोंमें क्षेत्ररुद्ध क्षेत्र इतना होता है -de १ प ब देकद्विकस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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