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________________ लोकविभांग: ६८ सप्त द्विकं चतुष्कं च शून्यं शून्यं च सप्तकम् । एकमेकं च मध्यः स्यात्परिधिः पुष्करार्धके ।। ५६ । ११७००४२७। पुष्करार्धस्य' बाह्ये चं परिधिनवचतुष्टयम् । द्विकं शून्यं त्रिकं द्वे च चतुष्कं चैकमिष्यते ।। ५७ ।१४२३०२४९ । चतुःसहस्रं द्विशतं दशकं दश चां,काः । एकानविंशतेास: पुष्करे हिमवगिरेः ॥ ५८ ४२१०।१९।। चतुर्गुणा च वृद्धिश्चा निषधाद्धानिश्च नोलतः । द्वीपार्धव्यासदीर्घाश्च शैलाः शेषश्च पूर्ववत् ॥५९ चत्वार्यष्टौ च षट्कं च पञ्चकं पञ्चकं त्रिकम् । पर्वतरवरुद्धं च क्षेत्रं स्यात्पुष्करार्धके ।। ६० ।३५५६८४ ।। आदिमध्यान्तपरिधिष्वद्रिरद्धक्षिति पुनः । शोधयित्वावशेषश्च सर्वभूव्यासमेलनम् ॥ ६१ अभ्यन्तरपरिधौ पर्वतरहितक्षेत्र ८८१४९२१ । मध्यम ११३४४७४० । बाह्य १३८७४५६५ । भरताभ्यन्तरविष्कम्भो नवसप्तेष्वेकवार्धयः । त्रिसप्ततिशतं भागा द्वादश द्विशतस्य च ॥ ६२ । ४१५७९ । १५३ १२ है ॥ ५५ ॥ सात, दो, चार, शून्य, शून्य, सात, एक और एक; इतने अंकोंके क्रमसे जो संख्या (११७००४२७) हो उतने योजन प्रमाण पुष्करार्ध द्वीपकी मध्य परिधि है ॥ ५६ ॥ अंकक्रमसे नौ, चार, दो, शून्य, तीन, दो, चार और एक (१४२३०२४९) इतने योजन प्रमाण पुष्करार्ध द्वीपकी बाह्य परिधि मानी जाती है ।। ५७ ।।। पूष्करार्ध द्वीपमें हिमवान् पर्वतका विस्तार चार हजार दो सौ दस योजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमें दस भाग (४२१०१६ यो.) प्रमाण है ।। ५८॥ आगेके पर्वत निषध पर्वत पर्यंत उत्तरोत्तर चौगुणे विस्तारवाले हैं। फिर नील पर्वतसे आगे इसी क्रमसे उनके विस्तारमें हानि होती गई है। इन पर्वतोंकी लंबाई पुष्करार्ध द्वीपके विस्तार (८ लाख यो.) के बराबर है। शेष वर्णन पहिलेके समान है ।। ५९॥ अंकक्रमसे चार, आठ, छह, पांच, पांच और तीन (३५५६८४) इतने योजन प्रमाण क्षेत्र पुष्करार्ध द्वीपमें पर्वतोंसे अवरुद्ध है ।। ६० ॥ पुष्करार्ध द्वीपकी आदि, मध्य और अन्त परिधियोंके प्रमाणमेंसे पर्वतरुद्ध क्षेत्रके कम कर देनेपर शेष सब क्षेत्रोंका सम्मिलित विस्तार होता है ॥ ६१ ।। अभ्यन्तर परिधिमें पर्वतरहित क्षेत्र ८८१४९२१ यो., मध्यम परिधिमें ११३४४७४० यो. और बाह्य परिधिमें वह १३८७४५६५ यो. है । भरतक्षेत्रका अभ्यन्तर विस्तार नौ, सात, इष (पांच), एक और समुद्र अर्थात् चार इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या उपलब्ध हो उतने योजन और एक योजनके दो सौ बारह भागोंमें एक सौ तिहत्तर भाग (४१५७९१५३ यो.) १ आ प पुष्कपुष्क' । २५ वृद्धिश्च । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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