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________________ प्रस्तावना १. हस्तलिखित प्रतियां प्रस्तुत ग्रन्थका सम्पादन निम्न प्रतियोंके आधारसे किया गया है - प- यह प्रति भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीटयूट पूना की है । इसपरसे श्रीमान् डॉ. ए. एन्. उपाध्येजीने ग्रन्थकी जो प्रतिलिपि करायी थी उसपरसे इस ग्रन्थका मुद्रण हुआ है। आ- यह प्रति जैन सिद्धान्त भवन आराकी है। वह हमें सुहृद्वर पं. नेमिचन्दजी ज्योतिषाचार्य के द्वारा प्राप्त हुई है । इसकी लम्बाई चौडाई १३४८ इंच है । सब पत्र ७० हैं। इसके प्रत्येक पत्रमें दोनों ओर १३-१३ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग ३५ अक्षर हैं। ग्रन्थका प्रारम्भ · ॥ श्रीवीतरागाय नमः।।' इस मंगल वाक्यको लिखकर किया गया है। प्रतिके अन्तमें उसके लेखक और लेखनकालका कोई निर्देश नहीं है। फिर भी वह अर्वाचीन ही प्रतीत होती है। इसमें श्लोकोंकी संख्या सर्वथा नहीं दी गई है। इसमें व पूर्व प्रतिमें भी २-३ स्थलोंपर कुछ (२-४) पद्य नहीं पाये जाते हैं। जैसे- दसवें विभागमें १२ वां श्लोक और इसी विभागमें (पृ. २१३) श्लोक ३२१ के आगे ति. प. से उद्धृत गाथा २८-३० व ३१ का पूर्वार्ध भार ब- यह प्रति श्री. ए. पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बईकी है । इस प्रतिको हमें श्रद्धेय स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमीने कष्टसे प्राप्त करके भिजवाया था। इसमें सब पत्र ७७ हैं। प्रत्येक पत्रकी दोनों ओर १२ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३५ अक्षर हैं। ग्रन्थका प्रारम्भ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥' इस मंगल वाक्यसे किया गया है। यह प्रति मूडबिद्री में वी. नि. सं. २४५९ में श्री. एन्. नेमिराजके द्वारा लिखी जाकर मार्गशीर्ष शुक्ल पौर्णिमाको समाप्त की गई है, ऐसा प्रतिकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है। वह प्रशस्ति इस प्रकार है- लिखितोऽयं ग्रन्थः महावीर शक २४५९ रक्ताक्षि सं ! मार्गशीर्ष शुक्लपक्षे पौणिमास्यां तिथी एन्. नेमिराजाख्येन (जैन-मूडबिद्रयां निवसता) मया समाप्तश्च । शुभं भवतु । स्वस्तिरस्तु। । प्रस्तुत संस्करणमें तिलोयपण्णत्तीकी पद्धतिके अनुसार श्लोकके नीचे और क्वचित् उसके मध्यमें भी जो संख्यांकोंका निर्देश किया गया है वह इस प्रतिके ही आधारसे किया गया है । ये अंक पूर्वनिर्दिष्ट ( आ ५) दोनों प्रतियोंमें नहीं पाये जाते हैं । इस प्रतिमें 'ध' के स्थानपर बहुधा ' द ' पाया जाता है। २. ग्रन्थपरिचय प्रस्तुत ग्रन्थ ' लोकविभाग'' इस अपने नामके अनुसार अनादिसिद्ध लोकके सब ही विभागोंका वर्णन करनेवाला है। इसकी गणना प्रसिद्ध चार अनुयोगोंमेंसे करणानुयोग १ पं. नाथूराम प्रेमी 'लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति', जैन साहित्य और इतिहास पृ. १- २२. (बंबई, १९५६); अनेकान्त, २, पृ.८ इत्यादि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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