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________________ लोकविभागः [ २.५१ ल. बा. ५०००००। म ३०००००। आ १०००००। दा [धा] बा १३००००० । म ९०००००। आ ५०००००। का बा २९०००००। म २१००००० । आ १३००००० | पु बा ६१०००००। म ४५०००००। आ २९०००००। 'बाह्यसूचीकृतश्चान्तः सूचीवर्गेण होनकाः । जम्बूप्रमाणखण्डानि लक्षवर्गेण भाजिताः ।। ५१ ल २४ । दा (धा) १४४ । का ६७२ । पु२८८० । ५८] - ३००००० = विशेषार्थ—— मण्डलाकारसे स्थित द्वीप - समुद्रोंमें विवक्षित द्वीप अथवा समुद्रके एक दिशासे दूसरी दिशा तकके समस्त विस्तारप्रमाणको सूची कहा जाता है । वह आदि, मध्य और बाह्य भेदसे तीन प्रकारकी है। उपर्युक्त करणसूत्र में इन्हीं तीन सूचियोंके प्रमाणको लानेकी विधि बतलायी गई है । यथा -- विवक्षित द्वीप या समुद्रके विस्तारको ४ से गुणित करके उसमें से ३००००० योजन कम कर देनेपर शेष उसकी बाह्य सूचीका प्रमाण होता है । जैसेलवण समुद्रका विस्तार २००००० यो. प्रमाण है । इसे ४ से गुणित करनेपर २००००० × ४= ८००००० प्राप्त होते हैं । इसमेंसे ३००००० घटा देनेपर शेष ८००००० ५००००० यो. रहते हैं; यह लवण समुद्रकी बाह्य सूची ( मध्यगत जंबूद्वीपके विस्तार सहित दोनों ओरके लवण समुद्रका सम्मिलित विस्तार ) का प्रमाण हुआ -- २००००० + १०००००+ २००००० = : ५००००० योजन । लवण समुद्रके उपर्युक्त विस्तारको ३ से गुणित करके उसमें से ३००००० कम कर देनेपर उसकी मध्य सूची ( लवण समुद्रके एक दिशागत मध्य भागसे दूसरी दिशागत मध्य भाग तक) का प्रमाण होता है । यथा - २००००० X ३ - ३०००००३००००० यो । उक्त विस्तारप्रमाणको २ से गुणित करके ३००००० कम कर देनेपर उसकी आदि सूची ( उसके एक दिशागत अभ्यन्तर तटसे दूसरी दिशागत अभ्यन्तर तट तक) का प्रमाण होता है । १००००० यो । पूर्ववर्ती द्वीप अथवा समुद्रकी जो वाह्य सूचीका प्रमाण है वही उसके आगे के द्वीप अथवा समुद्रकी अभ्यन्तर सूचीका प्रमाण होता है । जैसे लवण समुद्रको बाह्य सूचीका प्रमाण जो ५००००० यो. है वही उससे आगे धातकीखण्ड द्वीपकी अभ्यन्तर सूचीका प्रमाण होगा । लवण समुद्रकी बाह्य सूची ५००००० यो., मध्यम सूची ३००००० यो, आदि सूची १००००० यो । धातकीखण्ड द्वीपकी बा. बा. १३००००० यो., म. ९००००० यो, आ. ५००००० यो । कालोद समुद्रकी बा. २९००००० यो. म. २१००००० यो, आ. १३००००० यो. 1 पुष्करद्वीपकी बा. ६१००००० यो, म. ४५००००० यो., आ. २९००००० योजन । यथा -- २०००००X२ ३००००० १ आ प बाह्यसूती । -- बाह्य सूची के वर्गको अभ्यन्तर सूचीके वर्गसे हीन करके शेषमें एक लाखके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने [विवक्षित द्वीप अथवा समुद्रके ] जंबूद्वीपके बराबर खण्ड होते हैं ।। ५१ ।। Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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