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________________ ५६] लोकविभागः [२.४४ - उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [४, २४७८-८८]दीवा लवणसमुद्दे अडदाल कुमाणुसाण चउवीसं । अब्भंतरम्मि भागे तेत्तियमेत्ता य बाहिरए ॥७ २४॥४८॥ चत्तारि चउदिसासु चउविदिसासु हवंति चत्तारि। अंतरविसासु अट्ठ य अट्ठ य गिरिपणिधिठाणेसुं ॥ ८ ।। ४।४।८।८। पंचसयजोयणाणि गंतूणं जंबुदीवजगदीदो। चत्तारि होंति दोवा दिसासु विदिसासु तम्मेत्तं ॥ ९ ।५००। पण्णाहियपंचसया गंतूणं होंति अंतरा दीवा । छस्सयजोयणमेत्तं गच्छिय गिरिपणिधिगददीवा ।। ५५०।६००। एक्कसयं पणवण्णा पण्णा पणुवीस जोयणा कमसो। वित्थारजुदा ताणं एक्फेक्का होदि तडवेदी।। १०० । ५५ । ५० । २५ । ते सव्वे वरदीवा वणसंडेहि दहेहि रमणिज्जा । फलकुसुमभारभंजिदरसेहि' ( ? ) महुरेहि सलिलेहि ।। एकोरुगलंगुलिगा वेसणिगा भासगा य णामेहि । पुव्वादीसु दिसासुं चउदीवाणं कुमाणुसा होति।। सक्कुलिकण्णा कण्णप्पावरणा लंबकण्णससकण्णा। अग्गिदिसादिसु कमसो चउदीवकुमाणुसाएदे ।। एकोरुक आदि अठारह कुलों ( कुमानुषों ) के निवासस्थानभूत हैं ॥ ४४ ॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें कहा भी है लवण समुद्रमें कुमानुषोंके अड़तालीस (४८) द्वीप हैं । इनमें चौबीस (२४) अभ्यन्तर भागमें और उतने ही वे बाह्य भागमें भी हैं ।। ७ ॥ उनमें चार दिशाओं में चार, चार विदिशाओं में चार, अन्तरदिशाओंमें आठ; तथा हिमवान्, शिखरी और दो विजयार्ध इन चार पर्वतोंके पार्श्वभागमें आठ; इस प्रकार सब द्वीप चौबीस हैं ।। ८ ।। जंबूद्वीपकी जगतीसे समुद्रमें पांच सौ (५००) योजन जाकर चार द्वीप दिशाओंमें और उतने मात्र (५००) योजन जाकर चार द्वीप विदिशाओंमें स्थित हैं ॥ ९॥ अन्तरद्वीप जगतीसे पांच सौ पचास (५५०) योजन जाकर तथा पर्वतोंके प्रणिधिभागोंमें स्थित द्वीप उससे छह सौ (६००) योजन जाकर हैं ॥ १० ॥ वे द्वीप क्रमसे एक सौ (१००), पचवन (५५), पचास (५०) और पच्चीस (२५) योजन प्रमाण विस्तृत हैं । उनमेंसे प्रत्येक द्वीपके तटवेदी है ।।११।। वे सब उत्तम द्वीप फलों और फूलोंके भारसे भंग होनेवाले (?) वनखण्डोंसे तथा मधुर जलयुक्त द्रहोंसे रमणीय हैं ॥ १२ ॥ पूर्वादिक चार दिशाओं में स्थित चार द्वीपोंके कुमानुष क्रमशः नामसे एकोरुक, लांगूलिक, वैषाणिक और अभाषक होते हैं ॥१३ ।। आग्नेय आदि चार विदिशाओंमें स्थित चार द्वीपोंके ये कुमानुष क्रमसे शष्कुलिकर्ण, कर्णप्रावरण, १व भंजिध' । २ व लंगलिगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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