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________________ ५४] लोकविभागः [२.३६श्वानास्याः कपिवत्राश्च लाअगुल्युभयपायोः । पायोः शकुलोकर्णा अभाषाणां च भाषिताः ।। घूककालमुखाश्चापि हिमवत्पूर्वपश्चिमे। गोमुखा मेषवक्त्राश्च विजया|भयान्तयोः ।। ३७ मेघविद्युन्मुखाः पूर्वापरयोः शिखरिणो गिरेः । दर्पणास्या गजास्याश्च विजया?भयान्तयोः ॥३८ तटात्पञ्चशतं गत्वा दिक्षु चान्तरदिक्षु च । विदिक्षु च सपञ्चाशत् षट्च्छतं गिरिपाश्र्वयोः ।। ३९ ५०० । ५५० । [६००] । अन्तरेष्वन्तरद्वीपाः शतरुन्द्रास्तु दिग्गताः । तत्पादं शैलपार्श्वस्था व्यस्ताः पञ्चाशतं परे ॥ ४० । ।२५ । सत्येकगमने पञ्चनवत[ति]स्तुङ्ग इष्यते ९५ । षोडशाहत उ सः ६६ प्रकृते किं भवेरिति ॥ ४१ त्रैराशिके द्वयोर्योगे जलस्थद्वीपतुङ्गता । एकयोजनतुङ्गास्ते जलोपरि सवेदिकाः ॥ ४२ पूर्वापर पार्श्वभागोंमें शरुकुली जैसे कानोंवाले कुमानुष रहते हैं । पूंछवालोंके उभय पार्श्वभागोंमें श्वानमुख और वानरमुख कुमानुष रहते हैं । तथा गूंगे मनुष्योंके दोनों पार्श्वभागोंमें शष्कुलीकर्ण मनुष्य कहे गये हैं ।। ३३-३६ ।। हिमवान् पर्वतके पूर्वभागमें घूकमुख, उसके पश्चिम भागमें कालमुख तथा विजयार्धके उभय पाश्वभागोंमें क्रमशः गोमुख और मेषमुख कुमानुष रहते हैं ।। ३७ ।। शिखरी पर्वतके पूर्वापर पार्श्वभागोंमें मेघमुख और विद्युन्मुख तथा विजयार्धके उभय प्रान्तभागोंमें दर्पणमुख और गजवदन कुमानुष रहते हैं ।। ३८ ।। दिशाओं और अन्तर दिशाओंमें जो कुमानुषद्वीप स्थित हैं वे समुद्रतटसे पांच सौ (५००) योजन आगे जाकर हैं । विदिशाओं में स्थित वे द्वीप समुद्रतटसे पचास सहित पांच सौ अर्थात् साढ़े पांच सौ (५५०) योजन, तथा पर्वतोंके उभय पार्श्वभागोंमें स्थित वे द्वीप समुद्रतटसे छह सौ (६००) योजन आगे जाकर हैं ।। ३९ ।। अन्तरालोंमें स्थित अन्तरद्वीपों और दिशागत अन्तरद्वीपोंका विस्तार सौ (१००) योजन, पर्वतीय पार्श्वभागोंमें स्थित द्वीपोंका उनके चतुर्थ भाग प्रमाण अर्थात् पच्चीस (२५) योजन, और दूसरे दिशागत द्वीपोंका विस्तार पचास (५०) योजन मात्र है ॥ ४० ॥ यदि एक योजन जानेपर जलकी ऊंचाई नीचे एक योजनके पंचानबैवें भाग (१६) तथा वही ऊपर इससे सोलहगुणी (१६) मानी जाती है तो प्रकृतमें (५००, ५००, ५५० और ६०० योजन जानेपर) वह कितनी होगी ; इस प्रकार त्रराशिक करनेसे प्राप्त दोनों राशियोंका योग करनेपर अभीष्ट जलस्थ द्वीपकी ऊंचाई प्राप्त होती है । वे द्वीप जलके ऊपर एक योजन ऊंचे और वेदिकासे संयुक्त हैं ।। ४१-४२ ।। विशेषार्थ-- लवण समुद्रका विस्तार सम भूभागपर २००००० योजन और नीचे तलभागमें १०००० योजन है । गहराई (जलकी ऊंचाई) उसकी १००० यो. मात्र है। इस प्रकार क्रमशः हानि होकर उसके विस्तार में दोनों ओरसे १९०००० योजनकी हानि हुई है । इसे आधा करनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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