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________________ किञ्चित् प्रास्ताविक १३ जो इन बातोंको नहीं जानते, वे मी इसकी पुस्तक ले कर उसका वाचन करावें जिससे उनको कविताकी निपुणताके गुण ज्ञात होंगे- इत्यादि । जिस भगवती ही देवीने मुझे यह सब आख्यान कहा है उसीने इसकी रचना करवाई है - मैं तो इसमें निमित्तमात्र हूं। यदि इस ग्रन्थके लिखते समय, ही देवी मेरे हृदयमें निवास नहीं करती, तो दिनके एक प्रहरमात्र जितने समयमें सौ-सौ श्लोकों जितनी ग्रन्थरचना कौन मनुष्य कर सकता है।" इत्यादि-इत्यादि । सचमुच ग्रन्थकार पर वाग्देवी भगवती ही देवीकी पूर्ण कृपा रही और उसके कारण आज तक यह रचना विद्यमान रही । नहीं तो इसके जैसी ऐसी अनेकानेक महत्त्वकी प्राचीन रचनाएं, कालके कुटिल गर्भमें विलीन हो गई हैं, जिनके कुछ नाम मात्र ही आज हमें प्राचीन ग्रन्थों में पढने मिलते हैं, पर उनका अस्तित्व कहीं ज्ञात नहीं होता । पादलिप्त सूरिकी तरंगवती कथा, गुणाढ्य महाकविकी पैशाची भाषामयी बृहत्कथा, हलिक कविकी विलासवती कथा आदि ऐसी अनेकानेक महत्त्वकी रचनाएं नामशेष हो गई हैं। प्राकृत वाङ्मयका यह एक बडा सद्भाग्य समझना चाहिये कि ही देवीकी कृपासे इस दुर्लभ्य प्रन्थकी उक्त प्रकारकी दो प्रतियां, आज तक विद्यमान रह सकीं; और इनके कारण, अब यह मनोहर महाकथा शतशः प्रतियोंके व्यापक रूपमें सुप्रकाशित हो कर, केवल हमारे सांप्रदायिक ज्ञानभंडारोंमें ही छिपी न रह कर, संसारके सारे सभ्य मानव समाजके बडे बडे ज्ञानागारोंमें पहुंच सकेगी और सैंकडों वर्षों तक हजारों अभ्यासी जन इसका अध्ययन-अध्यापन और वाचन-श्रवण आदि करते रहेंगे। जिस तरह ग्रन्थकार उद्दयोतन सूरिका मानना है कि उनकी यह रचना हृदयस्थ ही देवीकी प्रेरणाके आध्यात्मिक निमित्तके कारण निष्पन्न हुई है। इसी तरह मेरा क्षुद्र मन भी मानना चाहता है कि उसी वागधिष्ठात्री भगवती ही देवीकी कोई अन्तःप्रेरणाके कारण, इस रचनाको, इस प्रकार, प्रकट करने-करानेमें मैं मी निमित्तभूत बना होऊंगा। कोई ४४-४५ वर्ष पूर्व, जब कि मेरा साहित्योपासना विषयक केवल मनोरथमय, अकिश्चित्कर, जीवन प्रारंभ ही हुआ था, उस समय, अज्ञात भावसे उत्पन्न होने वाला एक क्षुद्र मनोरथ, धीरे धीरे साकार रूप धारण कर, आज जीवनके इस सन्ध्या-खरूप समयमें, इस प्रकार जो यह फलान्वित हो रहा है, इसे अनुभूत कर, यह लघु मन भी मान रहा है कि उसी माता ही देवीकी ही कोई कृपाका यह परिणाम होना चाहिये। यद्यपि इस कथाको, इस प्रकार प्रकाशित करनेमें, मैं मुख्य रूपसे निमित्तभूत बना हूं; परन्तु इस कार्यमें मेरे सहृदय विद्वत्सखा डॉ० उपाध्येजीका सहयोग भी इतना ही मुख्य भागभाजी है । यदि ये इस कार्यको अपना कर, संपादनका भार उठानेको तत्पर नहीं होते, तो शायद यह कृति, जिस आदर्श रूपमें परिष्कृत हो कर प्रकाशमें आ रही है, उस रूपमें नहीं भी आती। मैंने ऊपर सूचित किया है कि जेसलमेर वाली ताडपत्रीय प्रतिकी प्रतिलिपि स्वयं करा लेने बाद, सन् १९४३-४४ में ही मेरा मन इसका संपादन कार्य हाथमें लेनेको बहुत उत्सुक हो रहा था; पर शारीरिक शिथिलता आदिके कारण कभी कभी मेरा मन उत्साहहीन भी होता रहता था । पर डॉ० उपाध्येजीने जब इस भारको उठानेका अपना सोत्सुक उत्साह प्रदर्शित किया तब मेरा मन इसके प्रकाशनके लिये द्विगुण उत्साहित हो गया और उसके परिणामस्वरूप यह प्रकाशन मूर्त स्वरूपमें आज उपस्थित हो सका। डॉ० उपाध्येजीको इसके संपादन कार्यमें कितना कठिन परिश्रम उठाना पडा है वह मैं ही जानता हूं। जिन लोगोंको ऐसे जटिल और बहुश्रमसाध्य ग्रन्थोंके संपादनका अनुभव या कल्पना नहीं है, वे इसके श्रमका अनुमान तक करने में भी असमर्थ हैं। 'नहि वन्ध्या विजानाति प्रसूतिजननश्रमम्' वाली विज्ञजनोक्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001869
Book TitleKuvalayamala Katha Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotansuri, Ratnaprabhvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1959
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size14 MB
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