SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ कुवलयमाला यह जो मैंने अपना किश्चिद् वक्तव्य लिखा है वह केवल इसी दृष्टिसे कि इस ग्रन्थको, वर्तमान रूपमें प्रकट करनेके लिये, मेरा मनोरथ कितना पुराना रहा है और किस तरह इसके प्रकाशनमें मैं निमित्तभूत बना हूं । * प्रायः १२०० वर्ष पहले ( बराबर ११८० वर्ष पूर्व) उदयोतनसूरि अपर नाम दाक्षिण्यचिह्न सूरने वर्तमान राजस्थान राज्यके सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक स्थान जाबालिपुर ( आधुनिक जालोर) में रहते हुए, वीरभद्रसूरिके बनवाए हुए, ऋषभदेवके चैत्य (जैनमन्दिर) में बैठ कर, इस महती कथाकी भव्य रचना की। ग्रन्थकारने प्रन्यान्तमें अपने गुरुजनों एवं समय, स्थान आदिके बारेमें जानने योग्य थोडी-सी महत्त्वकी बातें लिख दी हैं। शायद, उस समय इस ग्रन्थकी १०-२० प्रतियां ही ताडपत्रों पर लिखी गई होंगी। क्यों कि ऐसे बडे ग्रन्थों का ताडपत्रों पर लिखना - लिखवाना बडा श्रमसाध्य और व्ययसाध्य कार्य होता था। इस प्रन्थकी प्रतियोंकी दुर्लभता के कारण अनुमान होता है कि पीछेसे इस कथाका वाचन श्रवणके रूपमें विशेष प्रचार नहीं हुआ । कारण, एक तो कथाका विस्तार बहुत बडा है । उसमें पत्तेके अन्दर पत्ते वाले कदली वृक्षके पेडकी तरह, कथाके अन्दर कथा, एवं उसके अन्दर और कथा - इस प्रकार कथाजालके कारण यह ग्रन्थ जटिल-सा हो गया है । दूसरा, ग्रन्थ में इतने प्रकार के विविध वर्णनों और विषयोंका आलेखन किया गया है कि सामान्य कोटिके वाचक और श्रोताओंको उनका हृदयंगम होना उतना सरल नहीं लगता । अतः विरल ही रूपमें इस कथाका वाचन श्रवण होना संभव । यही कारण है कि इस ग्रन्थकी पीछेसे अधिक प्रतियां लिखी नहीं गई । हरिभद्रसूरिकी समराइच्चकहा की एवं उससे भी प्राचीन कथाकृति, वसुदेवहिंडी आदिकी जब अनेक प्रतियां उपलब्ध होती हैं तब इस कथाकी अभी तक केवल दो ही प्रतियां उपलब्ध हुई हैं । इनमें जेसलमेर वाली ताडपत्रीय प्रति विक्रमकी १२ वीं शताब्दी जितनी पुरानी लिखी हुई है और यद्यपि पूना वाली कागजकी प्रति १६ वीं शताब्दीमें लिखी गई प्रतीत होती है, पर वह प्रति किसी विशेष प्राचीन ताडपत्रीय पोथीकी प्रतिलिपिमात्र । ये दोनों प्रतियां परस्पर भिन्न मूलपाठ वाली हैं। हमारा अनुमान है कि ये जो भिन्न भिन्न पाठ हैं, वे स्वयं ग्रन्थकार द्वारा ही किये गये संशोधन- परिवर्तनके सूचक हैं । ग्रन्थकारने जब अपनी रचनाके, सर्वप्रथम जो एक-दो आदर्श तैयार करवाये होंगे, उनका संशोधन करते समय, उनको जहां कोई शब्द विशेषमें परिवर्तन करने जैसा लगा वहां, वह वैसा करते गये। एक आदर्शमें जिस प्रकारका संशोधन उनने किया होगा उसकी उत्तरकालीन एक प्रतिलिपिरूप जेसलमेर वाली प्रति है, और दूसरे आदर्शमें उनने जो संशोधन-परिवर्तन आदि किये होंगे, उसकी उत्तरकालीन प्रतिलिपिरूप वह प्राचीन ताडपत्रीय प्रति है जिस परसे पूना वाली कागज की प्रतिका प्रत्यालेखन किया गया है । प्राचीन ग्रन्थों के संशोधन की दृष्टिसे कुवलयमालाकी ये दोनों पाठभेद वाली प्रतियां बहुत ही महत्त्वकी जानकारी कराने वाली हैं। इन दो प्रतियोंके सिवा और कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है, अतः यह कहना कठिन है कि कौनसी प्रतिका विशेष प्रचार हुआ और किसका कम । पर इससे इतना तो ज्ञात होता ही है कि इस कृतिका प्रचार विशेष रूपमें नहीं हुआ । ग्रन्थकारको अपनी रचनाके महत्त्वके विषयमें बडी आरमश्रद्धा है । वे ग्रन्थके अन्तिम भागमें कहते हैं कि - " जो सज्जन भावयुक्त इस कथाको पढेगा, अथवा पंचावेगा, अथवा सुनेगा, तो, यदि वह भव्य जीव होगा तो अवश्य ही उसको सम्यक्त्वकी प्राप्ति होगी, और जिसको सम्यक्त्व प्राप्त है, तो उसका वह सम्यक्त्व अधिक स्थिर - दृढ होगा। जो विदग्ध है वह प्राप्तार्थ ऐसा सुकवि बन सकेगा । इस लिये प्रयत्नपूर्वक सब जन इस कुवलयमालाका वाचन करें। जो मनुष्य देशी भाषाएं, उनके लक्षण और धातु आदिके मेद जानना चाहते हैं, तथा वदनक, गाथा आदि छन्दोंके मेद जानना चाहते हैं, वे भी इस कुवलयमालाको अवश्य पढें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001869
Book TitleKuvalayamala Katha Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotansuri, Ratnaprabhvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1959
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy