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से
कर लेता है ।
मुख्य करते
आत्मतत्त्व की यथाथ समझ करने के लिये तो मुख्य- गौण व्यवस्था, मुख्यता से द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनय के प्रयोग द्वारा, उपयोगी होती है, और आत्मोपलब्धि के लिये वही मुख्य-गौण व्यवस्था, मुख्यतया निश्चय - व्यवहारनय के प्रयोग द्वारा उपयोगी होती है। जिसप्रकार द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिकनय द्वारा वस्तु को समझा जाता है, उसीप्रकार व्यवहारनय के द्वारा भी वस्तु को समझा जाता है लेकिन हेय बुद्धिपूर्वक समझा जाता है ।
( सुखी होने का उपाय भाग - ५
हुए मानने व जानने से साधकजीव आत्मोपलब्धि प्राप्त
इसही विषय का समर्थन परमभावप्रकाशक नयचक्र के पृष्ठ 53 पर निम्नप्रकार प्राप्त होता है एवं पृष्ठ ५४-५५ पर भी निम्न शब्दों में पुष्टि की गई है।
:
जहाँ एक ओर निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्य - प्रतिपाद्य संबंध है, वहीं दूसरी ओर व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक संबंध भी है ।
निश्चय प्रतिपाद्य है और व्यवहार उसका प्रतिपादक है । इसीप्रकार व्यवहार निषेध्य है और निश्चय उसका निषेधक है ।
हैं
समयसार में कहा है :
" एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण । णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाण ।। २७२ ।। इसप्रकार निश्चयनय द्वारा व्यवहारनय निषिद्ध हो गया जानो । निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनिराज निर्वाण को प्राप्त होते हैं । "
इस संबंध में पंचाध्यायीकार के विचार भी दृष्टव्य हैं, जो इसप्रकार
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