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________________ ९८ ) से कर लेता है । मुख्य करते आत्मतत्त्व की यथाथ समझ करने के लिये तो मुख्य- गौण व्यवस्था, मुख्यता से द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनय के प्रयोग द्वारा, उपयोगी होती है, और आत्मोपलब्धि के लिये वही मुख्य-गौण व्यवस्था, मुख्यतया निश्चय - व्यवहारनय के प्रयोग द्वारा उपयोगी होती है। जिसप्रकार द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिकनय द्वारा वस्तु को समझा जाता है, उसीप्रकार व्यवहारनय के द्वारा भी वस्तु को समझा जाता है लेकिन हेय बुद्धिपूर्वक समझा जाता है । ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ हुए मानने व जानने से साधकजीव आत्मोपलब्धि प्राप्त इसही विषय का समर्थन परमभावप्रकाशक नयचक्र के पृष्ठ 53 पर निम्नप्रकार प्राप्त होता है एवं पृष्ठ ५४-५५ पर भी निम्न शब्दों में पुष्टि की गई है। : जहाँ एक ओर निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्य - प्रतिपाद्य संबंध है, वहीं दूसरी ओर व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक संबंध भी है । निश्चय प्रतिपाद्य है और व्यवहार उसका प्रतिपादक है । इसीप्रकार व्यवहार निषेध्य है और निश्चय उसका निषेधक है । हैं समयसार में कहा है : " एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण । णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाण ।। २७२ ।। इसप्रकार निश्चयनय द्वारा व्यवहारनय निषिद्ध हो गया जानो । निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनिराज निर्वाण को प्राप्त होते हैं । " इस संबंध में पंचाध्यायीकार के विचार भी दृष्टव्य हैं, जो इसप्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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