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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (९९ व्यवहारः प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेधकश्च परमार्थः । व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात् ॥ व्यवहारः स यथा स्यात् सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवों वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः ॥ २॥ __व्यवहारनय प्रतिषेध्य निषेध करने योग्य है और निश्यचयनय उसका प्रतिषेधक अर्थात् निषेध करने वाला है। अत: व्यवहार का प्रतिषेध करना ही निश्चयनय का वाच्य है। ___जैसे, द्रव्य सद्रूप है और जीव ज्ञानवान है- ऐसा कथन व्यवहारनय है और “न” इस पद द्वारा निषेध करना ही निश्चयनय है, जो कि सब नयों में मुख्य है, नयाधिपति है।" ___ व्यवहार का काम भेद करके समझाना है, संयोग का भी ज्ञान कराना है, सो वह अभेद-अखण्ड वस्तु में भेद करके समझाता है, संयोग का ज्ञान कराता है; पर भेद करके भी वह समझाता तो अभेद-अखण्ड को ही है, संयोग से भी समझाता असंयोगी तत्त्व को ही है। तभी तो उसे निश्चय का प्रतिपादक कहा जाता है। यदि वह अभेद, अखण्ड असंयोगी तत्व को न समझावे तो उसे निश्चय का प्रतिपादक कौन कहे?" निश्चय का काम व्यवहार का निषेध करना है; निषेध करके अभेद, अखण्ड, असंयोगी तत्व की ओर ले जाना है। यही कारण है कि वह अपने विरोधी प्रतीत होने वाले अभिन्न-मित्र व्यवहार का भी बड़ी निर्दयता से निषेध कर देता है। साथी समझकर किंचित् मात्र भी दया नहीं दिखाता; यदि दिखावे तो अपने कर्तव्य का पालन कैसे करे ? . उसीप्रकार व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन नहीं होता और व्यवहार के निषेध बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती। निश्चय के प्रतिपादन के लिए व्यवहार का प्रयोग अपेक्षित है और निश्चय की प्राप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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