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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
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इसप्रकार निश्यचनय का कार्य परसे भिन्नत्व और निज में अभिन्नत्व स्थापित करना है तथा व्यवहार का कार्य अभेदवस्तु को भेद करके समझाने के साथ-साथ भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग व तननिमित्तक संयोगीभावों का ज्ञान कराना भी है। यही कारण है कि निश्चयनय का कथन स्वाश्रित और व्यवहारनय का कथन पराश्रित होता है तथा निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ-सच्चा और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ- उपचरित कहा जाता है।
- परमभाव प्रकाशक नयचक्र इसप्रकार अपनी भूमिका के अनुसार, अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये, साधक जीव जिन भावों को पूर्व भूमिका में निश्चय मानकर मुख्य करता है, उन्हीं भावों को आगे की भूमिका में व्यवहार मानकर गौण कर हेय कोटि में कर देता है, इसप्रकार निश्चय-व्यवहार का मुख्य प्रयोजन तो आत्मसाधना का है। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक एवं निश्चय-व्यवहारनय में अंतर
संक्षेप में कहा जावे तो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय का प्रयोजन तो वस्तुस्वरूप समझने के लिये मुख्य रूप से उपयोगी है और निश्चयव्यवहारनय का प्रयोजन, आत्म साधना के लिये मुख्यरूप से उपयोगी होता है।
द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय के विषयों का, ज्ञान में ज्ञात होना तो अनिवार्य है ही, क्योंकि वस्तु ही गुण-पर्यायात्मक अर्थात् नित्यानित्यात्मक है। दोनों नयों के विषयों को मुख्य-गौण व्यवस्थापूर्वक समझने से, समग्र वस्तु के स्वरूप को समझा जाता है। लेकिन निश्चय-व्यवहारनय के प्रयोग में, उस ही वस्तु के दोनों पक्षों को जानते हुए भी आत्मोपलब्धि के उद्देश्य से, अपने प्रयोजन सिद्धि में बाधक विषय को व्यवहार मानकर हेय बुद्धि से गौण करते हुए और साध्य को निश्चय मानकर उपादेय बुद्धि
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