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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
२. निश्चयनय सच्चा निरूपण करता है और व्यवहारनय उपचरित । ३. निश्चयनय सत्यार्थ है और व्यवहारनय असत्यार्थ । ४. निश्चयनय आत्माश्रित कथन करता है और व्यवहारनय पराश्रित । ५. निश्चयनय असंयोगी कथन करता है और व्यवहारनय संयोगी। ६. निश्चयनय जिस द्रव्य का जो भाव या परिणति हो, उसे उसी द्रव्य __की कहता है; पर व्यवहारनय निमित्तादि की अपेक्षा लेकर अन्य
द्रव्य के भाव या परिणति को अन्यद्रव्य तक कह देता है। ७. निश्चयनय प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र कथन करता है, जबकि व्यवहार
अनेक द्रव्यों को, उनके भावों, कारण-कार्यादिक को भी मिलाकर कथन करता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि निश्चय और व्यवहार की विषय-वस्तु और कथन-शैली में मात्र भेद ही नहीं, अपितु विरोध दिखाई देता है, क्योंकि जिस विषय वस्तु को निश्चयनय अभेद अखण्ड कहता है, व्यवहार उसी में भेद बताने लगता है और जिन दो वस्तुओं को व्यवहार एक बताता है, निश्चय के अनुसार वे कदापि एक नहीं हो सकते।
जैसा कि समयसार में कहा है :“ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कटठो।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार, मात्र एक अखण्ड वस्तु में भेद ही नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद भी स्थापित करता है । इसीप्रकार निश्चय मात्र एक अखण्ड वस्तु में भेदों का निषेध कर अखण्डता की ही स्थापना नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में व्यवहार द्वारा प्रयोजनवश स्थापित एकता का खण्डन भी करता
है।
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