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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) के लिये भी इन नयों का प्रयोग कार्यकारी होता है।
निश्चय-व्यवहारनय का प्रयोजन निश्चय-व्यवहारनय का उद्देश्य तो गुण-पर्यायवान-नित्यानित्यात्मक द्रव्य में, अपना वीतरागता रूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए, निश्यचयनय के विषयभूत अपने त्रिकाली ज्ञायकभाव को मुख्य कर 'उपादेय बुद्धि प्रगटकर' तथा व्यवहार नय के विषयभूत और ज्ञान में ज्ञेय के रूप में ज्ञात होते हुए अनेक प्रकार के भेदरूप एवं उपचरितरूप अनित्य भावों को गौण कर हेय बुद्धि प्रगट करते हुए, अपनी परिणति को, अभेद-अनुपचरित ऐसे त्रिकाली ज्ञायकभाव में एकाग्रकर, आत्मोपलब्धि प्राप्त कराना है। साधकजीव अपने उक्त प्रयोजन की सिद्धि के लिये, अपनी भूमिकानुसार जिसको मुख्य बनाता है वही, उस उस भूमिका में उसका उपादेय एवं निश्चय हो जाता है। अन्य भाव, पर्याय में एवं ज्ञान में ज्ञेय रूप में विद्यमान होते हुए भी, उनको व्यवहार मानकर, हेय बुद्धिपूर्वक गौण करते हुए, निश्चय के विषय को मुख्य करते हुए, उत्तरोत्तर अपनी भूमिका की वृद्धि करते करते, पूर्ण दशा प्राप्त कर लेता है।
इसप्रकार दोनों नयों के प्रयोजन सिद्ध करने के लिये, उनकी परिभाषा-अपेक्षाएं व आपस के अंतर को समझकर यथायोग्य प्रयोग द्वारा आत्मोपलब्धि प्राप्त करना चाहिए। परमभावप्रकाशक नयचक्र में पृष्ठ ४१ पर निश्चय-व्यवहार नय विषयों का संक्षेपीकरणपूर्वक अन्तर निम्नप्रकार स्पष्ट किया है :
“उक्त समस्त परिभाषाओं पर ध्यान देने पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं :
१. निश्चयनय का विषय अभेद है और व्यवहारनय का भेद ।
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