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________________ (८९ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) निरंतर बनी रहती है एवं शुद्धि, बृद्धि को प्राप्त होती रहती है। ऐसा जीव ही जिनवाणी में मोक्षमार्गी नाम पाता है। नयज्ञान की परिभाषा नयज्ञान की परिभाषा राजवार्तिक ३-१ सूत्र ३३ में निम्नप्रकार बताई है:"प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपकोनयः" "प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ का विशेष प्ररूपण करने वाला नय द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र गाथा १७१ में कहा है कि “वत्थुपमाणविसयं णय विसयं हवई वत्थुएकंसं। जं दोहि णिण्णयदटुं तं निक्खेवे हवइ विसंय॥" _ “वस्तु प्रमाण का विषय है और वस्तु का एक अंश नय का विषय है; तथा जो अर्थ, प्रमाण और नय से निर्णीत होता है, वह निक्षेप का विषय है।" उपर्युक्त परिभाषाएँ भी, नयात्मक ज्ञान ज्ञानी का ही होता है, यह सिद्ध करती हैं। इसप्रकार प्रमाणज्ञान द्वारा गृहीत विषय को अर्थात् अपनी आत्मा को जानकर, पहिचानकर, नयज्ञान के प्रयोगपूर्वक, द्रव्यार्थिकनय के विषय को मुख्य करके, पर्यायार्थिक नय के विषय को गौण रखते हुए, मुख्य विषय में स्थिरता बढ़ाता हुआ, पूर्णता प्राप्त कर लेता है। फलस्वरूप पर्यायार्थिक नय के विषय की अशुद्धता स्वत: ही क्रमशः क्षीण होती हुई नष्ट हो जाती है। इस ही का नाम मोक्ष दशा है और यही आत्मार्थी का प्रयोजन था, जो उपरोक्त प्रकार से सिद्ध हो जाता है। प्रमाणज्ञान का विषय प्रमाणज्ञान का विषय संपूर्ण पदार्थ अर्थात् अपना द्रव्य-गुणपर्यायात्मक संपूर्ण आत्मा होता है। इसमें द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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