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________________ ९०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ त्रिकाली ज्ञायक अपना शुद्धात्मा एवं पर्यायार्थिकनय की विषयभूत अपने आत्मा में अभेद रूप से बसे हुए अनंत गुण एवं द्रव्य की व गुणों की सभी पर्यायें समावेश हैं, दोनों नयों के विषयों को मिलाकर संपूर्ण द्रव्य जो अपना आत्म पदार्थ है, वह प्रमाणज्ञान का विषय है। प्रवचनसार गाथा . ८७ में पदार्थ की व्याख्या निम्नप्रकार की गई है : गाथार्थ :- द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायें “अर्थ” नाम से कही गई हैं। उनमें गुणपर्यायों का आत्मा द्रव्य है गुण और पर्यायों का स्वरूपसत्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं है इसप्रकार ( जिनेन्द्र) का उपदेश है। टीका :- द्रव्य, गुण और पर्यायों में अभिधेय भेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से वे “अर्थ हैं । अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायों में वाक्य का भेद होने पर भी वाचक में भेद न देखें तो “अर्थ-ऐसे एक ही वाचक शब्द से ये तीनों पहिचाने जाते हैं। । उपर्युक्त प्रमाणज्ञान के विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान तो केवली भगवान को क्षायक ज्ञान में ही होता है, छद्मस्थ के क्षयोपशम ज्ञान में नहीं होता। लेकिन उक्त विषयों को छद्मस्थ अपने ज्ञान में नयों के माध्यम से क्रमश: समझकर यथार्थ निर्णय कर सकता है। उस निर्णय करने वाले ज्ञान को द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय कहा गया है। उक्त यथार्थ निर्णय के माध्यम से अपनी आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझकर, अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये पूर्वकथित निश्चय-व्यवहार नयों के ज्ञान द्वारा, व्यवहारनय के विषयों को गौण अर्थात् निषेध करता हुआ, निश्चयनय के विषय को मुख्य बनाकर आरूढ़ होता हुआ, उसमें ही एकाग्रता करता हुआ आत्मानुभूति प्राप्त कर लेता है। इस ही का समर्थन प्रवचनसार की गाथा २३२ व २३३ के भावार्थों से प्राप्त होता है - "भावार्थ :- आगम के बिना पदार्थों का निश्चय नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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