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________________ ८८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ हो जाता है। ज्ञानी को स्वसंवेदन के काल में जो अतीन्द्रिय आनंद अनुभव में आया उसका संवेदन, मतिज्ञान के धारणा ज्ञान में बस जाता है तथा अनंतानुबंधी का अभाव हो जाने से, अनन्त गुणों की आंशिक निर्मलता की प्रगटता भी साथ ही वर्तने लगती है। इसही को जिनवाणी में परणति के नाम से कहा गया है, इसका वेदन ज्ञानी को निरंतर वर्तता ही रहता है। सविकल्प दशा में भी वह वेदन तो निरंतर वर्तता ही रहता है । इसलिये ही ज्ञानी के ज्ञान में अपना त्रिकाली ज्ञायक भाव हमेशा मुख्य बना रहता है। इस ज्ञानी का ज्ञान नयात्मक हो जाने से इसके ऐसे ज्ञान को निश्चय नय कहा गया है। ज्ञानी को हमेशा इस विषय की मुख्यता वर्तती रहती है, इसी कारण मुख्य को निश्चय कहा गया है। उसी समय साथ में ही वर्तने वाली अधूरी अथवा विकारी जितनी भी पर्यायें अथवा ज्ञेय हैं उनका भी ज्ञान तो आत्मा को वर्तता ही है, वे सब आत्मस्वभाव के अनुरूप नहीं होने से वास्तव में आत्मा का रूप नहीं हैं, लेकिन फिर भी उनको आत्मा ही कहा जाता है। इसलिये उस ज्ञान को व्यवहार नय कहा गया है; और ज्ञानी को निरंतर उसके प्रति हेय बुद्धि होने से गौणता बनी रहती है, इसलिये गौण सो व्यवहार ऐसा कहा गया है। उस संवेदन की अपूर्वता का ज्ञान हो जाने से व परिणति बनी रहने से उसका आंशिक वेदन भी वर्तने के कारण, रुचि का विषय स्व बन जाता है। वह अनुभूति जो ज्ञान का विषय बनकर धारणा ज्ञान में निरंतर बनी रहती है एवं परिणति निरंतर वर्तने से रुचि का भी विषय होने से स्मृति में भी आती रहती है, वह स्व के अतिरिक्त अन्य विषयों का उपयोगात्मक ज्ञान होते हुए भी उसमें एकत्व नहीं होने देती। पर की ओर की अर्थात् ज्ञेयमात्र की ओर की रुचि सहज ही मन्द पड़ जाती है। उनकी ओर उपेक्षा बुद्धि वर्तती रहने से, वृत्ति स्व की ओर आकर्षित बनी रहती है और उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यही कारण है कि उसकी साधक दशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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