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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (८७ प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होने वाला जो स्वविषयभूत पदार्थ का ज्ञान, वह पर के द्वारा प्रादुर्भाव को प्राप्त होने से “परोक्ष के रूप में जाना जाता है, और अंत:करण, इन्द्रिय परोपदेश, उपलब्धि संस्कार या प्रकाशादिक सब परद्रव्य की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्यपर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान वह केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होने से “प्रत्यक्ष के रूप में जाना जाता है।" उपर्युक्त लक्षण के द्वारा स्पष्ट है कि कोई की अपेक्षा रखे बिना सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है, बाकी ज्ञान परोक्ष हैं। ऐसा सर्वदेश प्रत्यक्ष ज्ञान तो मात्र केवली भगवान को ही होता है अर्थात् आत्मा के हर एक प्रदेश एवं प्रत्येक गुण तो प्रत्यक्ष केवली को ही होते हैं, छद्मस्थ को नहीं । लेकिन सभी गुणों का अभेद संवेदन स्वाद तो निर्विकल्प दशा प्राप्त जीव को प्रत्यक्ष ही होता है। ज्ञान की अपेक्षा तो वह ज्ञान परोक्ष ही है। प्रत्यक्ष ज्ञान तथा परोक्ष ज्ञान में, जाति की एवं विषय की सम्यक्ता की अपेक्षा अन्तर नहीं है मात्र निर्मलता विशदता की अपेक्षा अंतर है,. परोक्षामुख परिच्छेद २ के सूत्र ३ में कहा है कि : “विशदं प्रत्यक्षम्” ज्ञान की विशदता प्रत्यक्ष है। इसीप्रकार आत्मा को विषय की जानकारी जो निर्णय की अपेक्षा आगम, अनुमान, आदि के द्वारा होती है, वह भी परोक्ष प्रमाण है। ज्ञानी को आत्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान आगम द्वारा समझकर निर्णय करके अनुमान ज्ञान द्वारा भी यथार्थता पूर्वक परोक्ष ही होते हैं, वह भी प्रमाण है अर्थात् आगम अपेक्षा सत्यार्थ विषय का ज्ञान करता है और वही स्वरूप, निर्विकल्प दशा में विशेष निर्मल एवं विशदता को प्राप्त होकर, अनुभव में आ जाता है, मात्र विकल्प नहीं रहता, तब वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पाता है। वही ज्ञान गुणस्थान अनुसार बढ़ते-बढ़ते पूर्णता को प्राप्त अर्थात् केवलज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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