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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति निर्विकल्प आत्मानुभूति में ही होती है सम्यग्दर्शन के पूर्व जो ज्ञान मिथ्या था, उस ही क्षयोपशम ज्ञान ने आत्मानुभूति के समय अपने द्रव्य को स्वानुभव के द्वारा प्रत्यक्ष कर लिया, अर्थात् निज आत्मद्रव्य को अभेद रूप से स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा जान लिया। अत: वही ज्ञान अब सम्यक्ता को प्राप्त होने से सम्यग्ज्ञान हो गया। इसी कारण उसके ज्ञान को प्रमाणज्ञान कहा गया है।
वास्तव में तो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के साथ-साथ ही आत्मा का ज्ञान स्व में उपयोगात्मक अभेद होता है, स्व में अभेद होते ही अनंत गुणात्मक आत्मा के अतीन्द्रिय सुख का संवेदन, अतीन्द्रिय ज्ञान में प्रत्यक्ष हो जाता है। अत: मतिश्रुतज्ञान का क्षयोपशम जो उस संवेदन के पूर्व मिथ्या था, वह ही सम्यक् हो जाता है। इसी कारण वह ज्ञान प्रमाण कहलाता है और उसके साथ-साथ ही नयज्ञान भी उदित हो जाता है। इसी को प्रमाणपूर्वक नय का जन्म भी कहा जाता है और वे दोनों सम्यग्ज्ञान के अंश होने से उन को सम्यक् प्रमाणनय भी कहा जाता है। आगम में भी कहा है - "श्रुतविकल्पानया" श्रुतज्ञान का ही विकल्प भेद नय है। जब मतिश्रुत ज्ञान ही सम्यक् हो गया तो उसके भेद भी सम्यक् ही रहेंगे। अत: ज्ञानी के प्रमाण एवं नय सभी सम्यक हैं।
स्वसंवेदन की प्रत्यक्षता, परोक्षता एवं मुख्यता
यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थ का ज्ञान निर्विकल्प हो अथवा सविकल्प हो, रहेगा तो वह परोक्ष ही। अत: परोक्ष ज्ञान में आत्मा प्रत्यक्ष कैसे हो जावेगा।
समाधान :- प्रवचनसार की गाथा ५८ तथा उसकी टीका में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान का लक्षण निम्नप्रकार बताया है :
"टीका :- निमित्तता को प्राप्त निमित्तरूप बने हुए ऐसे जो परद्रव्यभूत अंत:करण मन, इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार या
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