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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
(८५ के भाव ही उत्पन्न नहीं होते। मात्र एक सत्समागम का ही इच्छुक बना रहता है। सच्चे देवशास्त्र-गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव वर्तने लगता है। अतः श्रावक के षट्कर्म भी सहज वर्तने लगते हैं। पद्मनंदि पंचविशतिका में श्रावक के षट्कर्म बताये हैं :
देवपूजा गुरूपास्ति, स्वाध्याय संयमस्तपाः ।
दानं चेतिगृहस्थाणां षट्कर्माणि दिने दिने । । भगवान की पूजा, गुरू की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये श्रावक के षट्कर्म हैं, जो श्रावक को नित्य करने चाहिए। इसप्रकार ज्ञानी का जीवन निश्चयसहित यथार्थ व्यवहार युक्त सहज वर्तने लगता
प्रमाणज्ञान का फल भी परीक्षामुखसूत्र अध्याय ४ के सूत्र १ में बताया है कि अज्ञान की निवृत्ति के साथ-साथ हेय उपादेय का ज्ञान एवं उपेक्षा बुद्धि प्रमाणज्ञान का फल है। इसलिये सम्यग्ज्ञानी को अज्ञान का अभाव होकर पर्याय में अनंतानुबंधी के अभावात्मक त्याग एवं ग्रहण होकर ज्ञेयों के प्रति उपेक्षा बुद्धि वर्तने लगती है। कहा है :
अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपदानोयपेक्षाष्च फलं ॥१॥
अज्ञान की निवृत्ति, त्यागना, ग्रहण करना और उपेक्षा करना-यह प्रमाण का फल है ॥१॥
इसप्रकार सम्यग्ज्ञानी का ज्ञान प्रमाण हो जाने से उपरोक्त वृत्ति सहजवर्तने लगती है। अब यह समझना है कि जब वह ज्ञानी सविकल्प दशा में होता है तब उसका ज्ञान नयज्ञान हो जाने से किसप्रकार से कार्यशील रहता है।
नयज्ञान वास्तव में नयज्ञानका जन्म सम्यग्दर्शन के साथ ही होता है, लेकिन नयज्ञान सम्यग्ज्ञान का अंश है, सम्यग्दर्शन का नहीं। क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की पर्याय है और नयज्ञान तो ज्ञान गुण की पर्याय है।
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