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________________ ८४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ ही ज्ञान को सम्यक् हो जाने से प्रमाणज्ञान कहा जाता है तथा सामान्य विशेषात्मक संपूर्ण पदार्थ का अभेद रूप से स्वसंवेदन ज्ञान हो जाने से भी इस समय के अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रमाणज्ञान कहा गया और इसही समय के ज्ञान में नयज्ञान का जन्म भी साथ ही हो जाता है। इसही को जिनवाणी में प्रमाणपूर्वक नय की उत्पत्ति कहा है। तत्पश्चात् वह ज्ञानी सविकल्पदशा में ज्ञान का प्रयोग करता है, तब अपने आत्मा में रहे हुए, सामान्य विशेषात्मक स्वभावों को क्रमश: मुख्य-गौण व्यवस्थापूर्वक नयज्ञान द्वारा जानता रहता है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टी के ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहा गया है। विकल्पदशा में तो छद्मस्थज्ञानी का ज्ञान, नयज्ञान के रूप में प्रवर्तित होता रहता है और इस ही समय मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही सम्यकता को प्राप्त हो जाते हैं तथा साथ ही यथार्थ निश्चय-व्यवहार रूप नयज्ञान का भी जन्म हो जाता है। द्रव्य संग्रह की गाथा ४७ में कहा भी है : दुविहं पि मोक्खहेडं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचिता, जूयं ज्ञाणं समब्यसह ॥ १७॥ मुनिजनों को दोनों ही मोक्षमार्ग निश्चय एवं व्यवहार, ध्यान में ही प्राप्त होते हैं। अत: तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिये ध्यान प्राप्त करो। ॥ ४७ ॥ इसप्रकार सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होते ही आत्मा अनेक अलौकिक उपलब्धियों से अलंकृत हो जाता है। आत्मा के अलौकिक अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द के संवेदन से प्राप्त अत्यन्त तृप्तिरूप कृतकृत्यता अनुभव होने लगती है। अब उस ज्ञानी को बाहर के सभी प्रकार के संयोगों में, इन्द्रियों के विषयों आदि में सुख बुद्धि निकल जाती है, उसका जीवन वैराग्यमय बन जाता है। आत्मा के अतिरिक्त अन्य सभी ज्ञेयों के प्रति उपेक्षा भाव वर्तने लगता है। फलत: लौकिक जीवन भी नैतिक बन जाता है। अन्यायमय प्रवृत्ति करने एवं किसी भी अभक्ष्य वस्तु को भक्षण करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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