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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (८१ सम्यग्ज्ञान है और प्रमाण ज्ञान के अभाव में नयज्ञान मिथ्याज्ञान कहा जाता है । अत: प्रमाण ज्ञान एवं उसके विषय को भलीप्रकार से समझना चाहिए। प्रमाण ज्ञान आगम का वाक्य है “सम्यग्ज्ञानंप्रमाणं" सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। सम्यग्ज्ञान है वही ज्ञान, प्रमाण ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानी को आत्मदर्शन दो प्रकार से होता है, परोक्ष एवं प्रत्यक्ष । परोक्ष तो छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि को होता है और प्रत्यक्ष केवली भगवान को होता है। अत: दोनों के ही ज्ञान । सम्यक् होने की अपेक्षा प्रमाण कहे गये हैं। लेकिन पदार्थ को जानने की अपेक्षा केवली का ज्ञान ही प्रमाणज्ञान कहलाता है, क्योंकि उन्हीं का ज्ञान एक ही समय सामान्य-विशेषात्मक संपूर्ण पदार्थों को जान लेता है। परीक्षामुखसूत्र के परिच्छेद सूत्र १ में प्रमाणज्ञान का स्वरूप निम्नप्रकार बताया है : "सामान्य विशेषात्यतदर्थो विषयः" । सामान्य विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय है।" उपरोक्त परिभाषा के अनुसार, जिस ज्ञान का विषय सामान्यविशेषात्मक संपूर्ण पदार्थ हो वह प्रमाणज्ञान है । इसप्रकार केवली भगवान का ज्ञान तो क्षायक हो जाने से, वह तो सामान्य विशेषात्मक संपूर्ण पदार्थ को एक ही समय में जान लेता है। मात्र इतना ही नहीं, लोक अलोक के सभी पदार्थों को भी एक समय में ही जान लेता है। अत: उनका ज्ञान तो प्रमाणज्ञान है ही। शंका:- लेकिन छद्मस्थ का ज्ञान तो क्षायोपशमिक होने से परोक्ष ज्ञान हैं। वह तो एक साथ, संपूर्ण पदार्थ को जान ही नहीं सकता? पदार्थ तो एक ही समय में सामान्य विशेषात्मक नित्यानित्यात्मक है और छद्मस्थ का ज्ञान तो दोनों विरोधी धर्मों को एक साथ एक समय ही, जानने में असमर्थ है, अत: वह तो सम्पूर्ण पदार्थ को एक साथ जान ही नहीं सकता? उसका ज्ञान प्रमाणज्ञान कैसे हो सकेगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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