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________________ (सुखी होने का उपाय भाग - ५ आत्मोपलब्धि में भी नयज्ञान किसप्रकार उपयोगी होता है, यह समझना है । ८० ) प्रश्न :- हमारे ज्ञान का विषय क्या है, जिसमें नयज्ञान का प्रयोग आवश्यक होगा ? समाधान : परिपूर्ण एवं शुद्ध ज्ञान, क्षायिकज्ञान तो भगवान केवली का है, उनका प्रगट ज्ञान ही हरएक आत्मा के ज्ञान का यथार्थ स्वभाव है। उनके ज्ञान का जो भी विषय हो वास्तव में वही हर एक आत्मा के ज्ञान का विषय होना चाहिए। भगवान अरहंत के हर एक समय के ज्ञान का विषय स्व हो अथवा पर, सबके द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक संपूर्ण पदार्थ होते हैं, इसलिये उनके ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते हैं एवं उस ज्ञान के विषय को भी प्रमाणज्ञान का विषय कहते हैं । इसप्रकार केवली को द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक पूरे पदार्थ ही ज्ञान के विषय होते हैं व होना भी चाहिए । लेकिन हमारे छद्मस्थ के क्षायोपशमिक ज्ञान की इतनी अधिक निर्बलता है कि हम एक समय में एक पदार्थ को भी पूरा नहीं जान पाते, अन्य को जानने की तो बात ही क्या करें । इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक लगता है कि प्रमाण ज्ञान के विषय को समझना चाहिए। आचार्यों का कथन भी है कि प्रमाण ग्रहीत पदार्थ भेद प्रभेद करके समझने के लिये ही नयों का प्रयोग होता है । तत्त्वार्थ राजवार्तिक अध्याय १ सूत्र ३३ में कहा है कि :" प्रमाणप्रकाशितार्थविषेषाप्ररूपको नयः । " प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ का विशेष निरूपण करने का नाम नय है।” इसप्रकार सर्वप्रथम प्रमाण ज्ञान एवं उसके विषय-पदार्थ का स्वरूप समझना चाहिए, जिसको भेद-प्रभेद करके नयज्ञान द्वारा समझना, आत्मोपलब्धि के लिये कार्यकारी है । प्रमाणपूर्वक नय का ज्ञान ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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